एक नादान परिंदा था वोह
पतंग के माँझे से यूँ लटका हुआ
मेने आज एक कबूतर देखा
कबका मर कर सूख चुका
माँझे से दोनों पंख कटे हुए
बहुत फड़फड़ाया होगा शायद
आज़ाद होने को
मगर ना मालूम था उसे
इस जाल के बारे में
इंसान के लिए जो महज खेल
मनोरंजन का साधन है
परिंदे ने ना सोचा होगा कभी
ये पतंग यूँ मौत का खेल बन जायेगा
वो तो बस शाम को उड़कर
अपने घर लौट रहा था
पतंगों कि उस बाजी में
जान कि बाजी हार गया
कुछ ना नज़र आया उसे
बस माँझे में उलझता गया
आखिरी सांस तक फड़फड़ाता रहा
फिर दम तोड़ दिया
लटक गया माँझे से यूँ
जेसे हो कोई कटी पतंग
छत कि मुंडेर से लटकी हुई
दूर पेड़ो पर बेठे थे चील कौए
बदन को नौंच नौंच कर खा गए
जो बचा उसे धूप सुखा गयी
अब तो सिर्फ मांझा लटका है अकेला
किसी कबूतर के निशान नहीं इस पर
शायद उसका गुनाह यही के
एक नादान परिंदा था वोह………