कभी-कभी ख़ुद को इतना बेबस पाता हूं
के बहुत कुछ सोचकर भी कुछ नहीं लिख पाता हूं
जाने कैसी बेबसी होती है उस वक़्त मैं नहीं जानता
वो मुझे निगलती रहती है मैं उसे उगलता रहता हूं
काग़ज़ को बहुत दर्द होता है इस दौरान
वो अपनी चीखे मेरी चीखों के नीचे दबाता चला जाता है
गर बच जाएं कोई आह तो उसे जलाता चला जाता है
उस राख को अपने जिस्म पर लगाता चला जाता है
देखते ही देखते हर ख़याल मुझसे दूर चला जाता है
गर जबरदस्ती करूं तो लफ़्ज़ों से नूर चला जाता है
कभी-कभी ख़ुद को इतना बेबस पाता हूं
के सब कुछ सोचकर भी कुछ नहीं लिख पाता हूं
