फ़क़त मेरी ही नहीं आँखें उसकी भी नम थीं
अलविदा कहने वाली ज़ुबाँ बड़ी बेरहम थी
वो अपनी बेगुनाही साबित करता भी तो कैसे?
अदालत ने जो दी थी मोहलत बहुत कम थीं
पहली दफ़ा जब सुना उसे तो कुछ यूँ लगा
मानों शोर से परे वो लहराती हुई सरगम थीं
वो जानती थी जीना, रोज़ मुझे सिखाती थी
दौड़ती इस ज़िंदगी में चाल उसकी मद्धम थीं
उसकी तारीफ़ में बस इतना ही कहना चाहूँगा
के वो साथ मेरे हरक़दम हरदम हमदम थीं
गुज़र गई जब ज़िंदगी तो पता ये चला इरफ़ान
के जो मिली थी वो सितम ज्यादा मरहम कम थीं।