उसने हमदर्द बनके हर बार हज़ारों दर्द दिए
पुराने हो चले थे सो फिर से नए ज़ख़्म दिए
वो जानता था के मैं चुका नहीं पाउंगा कभी
उसने फिर भी मुझ को कर्ज़ पे कर्ज़ दिए
शिकवा भी क्या करे किसी और से हम यहां
जब ख़ुद अपने ही हकीम ने हम को मर्ज़ दिए
हम मरीज़-ए-इश्क़ दिलबर-दिलबर करते रहे
और दिलबर ने दिल खोलकर ख़ूब दर्द दिए
दर्द सहते-सहते जब मौत लाज़िम हो गई
तब जाकर ज़िंदगी ने आँखों में कुछ अश्क़ दिए।
Gjbbb
shukram
Behtareen
behad shukriya