कोई कमबख़्त कहता है कोई बदबख़्त कहता है
फ़क़त इक यार ही तो मुझ को दरख़्त कहता है।
उसने देखा है मुझ को शजर से पत्थर होते हुए
वो मेरे दर्द को छूकर उसे फिर नज़्म कहता है।
क़ैद हैं क़िस्से कई उसकी पथराई आँखों में
उसकी कहानी उसका हर इक अश्क़ कहता है।
छुपाएं थे मैंने कभी ज़ख़्म किसी जमाने में
ज़माना जिसे के गुज़रा हुआ वक़्त कहता है।
बिन बताएं वो बिन जताएं दर्द से राहत दिलाएं
इसीलिए तो हर शख़्स उसे हमदर्द कहता है।
फ़र्क़ नहीं पड़ता मुझे अब ज़माने के किसी ताने का
ज़माना तो हर ख़ुद्दार को ख़ुदग़र्ज़ कहता है।।
कमबख़्त/बदबख़्त – अभागा/Unfortunate
फ़क़त – केवल/Only
दरख़्त – पेड़/Tree
शजर – एक पेड़/ a tree
नज़्म – उर्दू में कविता का एक रूप/Poetry
अश्क़ – आँसू/Tears
ख़ुद्दार – स्वाभिमानी/self-respecting
ख़ुदग़र्ज़ – स्वार्थी/Selfish