हमने अपने वज़ूद को कुछ यूं बचा रक्खा है
जैसे बरसती हुई बारिश में चराग़ जला रक्खा है
गज़ब हो जाएगा, जिस दिन अश्क़ों का सागर सूख जाएगा
बस इसीलिए तो सीने में एक दरिया दबा रक्खा है
पथराई आँखों को पढ़ने की गुस्ताख़ी ना कर बैठना
हमने अपनी आँखों में इक आफ़ताब छुपा रक्खा है
कई सिलसिले बाक़ी हैं, अभी कई जलजले बाक़ी हैं
तभी तो हज़ार रातोंं से हमने नींद को जगा रक्खा है
तुमने अभी हमारी मेहमाननवाज़ी देखी ही कहां है?
आओ कभी हवेली पे हमने मौत को दावत पे बुला रक्खा है।
बहुत बेहतर
शुक्रिया जनाब