तुम्हें शायद मालूम नहीं मैं तुम्हारी आँखों में रहता हूँ
महसूस करो नमी मेरी, अश्क़ हूँ मैं पलकों से बहता हूँ
कई रोज़ गुज़र जाते हैं, मगर गुज़रती नहीं वो इक रात
उस इक रात की हर बात अपने आँसुओं से लिखता हूँ
मुसाफ़िर कई मिलते हैं रोज़, मिलकर वो बिछुड़ते हैं रोज़
मील के पत्थर सा टकटकी बाँधें उन्हें बस देखता हूँ
उसने तो बड़ी आसानी से एक रोज़ अलविदा कह दिया
और मैं हूँ के अब तलक अलविदा कहने से डरता हूँ
जब इंतज़ार दम तोड़ देता है, और साया भी साथ छोड़ देता है
उस वक़्त एक बदलाव अपने अंदर महसूस करता हूँ
मज़ाक भी उड़ाया गया, और मज़ार भी बनाया गया
ज़िंदगी के ज़ुल्मो सितम बड़ी ही ख़ामोशी से सहता हूँ
भूले भटके से ही आना कभी, पता है मेरा अब भी वहीं
सच कहता हूँ दिल के बेघर घर में मैं अब भी रहता हूँ।
Beautiful!
Shukriya sir