तुम्हें तो पता भी नहीं, कितना चाहता हूँ तुम्हें
पता चले भी तो कैसे, बेअल्फ़ाज़ ख़त लिखता हूँ तुम्हें
पहली बार जिस रोज़ तुमको देखा था, बस देखता ही रह गया
बाद उसके अब हर जगह बेवज़ह देखता हूँ तुम्हेंं
तुम्हारा चेहरा किसी की याद दिलाता है, पता नहीं किसकी
सोच भी खुद पड़ जाएं सोच में, इतना सोचता हूँ तुम्हें
तु्म्हारी हंसी का वो इक क़तरा, संभालकर रखा है दिल में
जब भी दिल करता है, बेतहाशा जीता हूँ तु्म्हें
आँखें तुम्हारी हैं ग़ज़ल, चेहरा जैसे कोई किताब
जी भरके देखता हूँ पहले, फिर धीरे-धीरे पढ़ता हूँ तुम्हें
पता नहीं तुम कौन हो, हाँ दिल-ए-नादान का चैन हो
दरगाह पे धागे बांधकर, मन्नतों में मांगता हूँ तुम्हें
मैं ज्यादा तो कुछ नहीं जानता, ये क्या हो रहा हैं, ये क्यों हो रहा हैं
बस अपनी हर इक साँस में महसूस करता हूँ तु्म्हें…