ना तुमने कुछ कहा, ना मैने कुछ कहा
फिर भी न जाने क्यों, दरमियाँ हमारे कुछ तो था
यह अलग बात है कि तुम्हें अनजान बनने की अदा आती है
लेकिन मेरा क्या? मुझे तो तुम्हारे बिन साँसें भी नहीं सुहाती हैं
इतना आसां नहीं होता है, आसानी से किसी को भूल जाना
बहुत मुश्किल होता है, मिटती हुई उन यादों को रोक पाना
वक़्त की आँधी को भला क्या ख़बर, मेरे हाल-ए-दिल की
उसे तो संग जो भी मिले, संग अपने बस उड़ा ले जाना है
काश…वक़्त के पहियों में भी जंग लग पाता
कभी तो वो भी दो पल के लिए कहीं थम जाते
बस….उन्ही दो पलों में हम वो सारी अधूरी बातें कर लेते
जो उस आख़िरी मुलाक़ात में अधूरी रह गयी थी
जिस रोज़ ना तुमने कुछ कहा था, ना मैंने कुछ कहा था
फिर भी न जाने क्यों उस रोज़, काफी कुछ ऐसा हुआ था
जिसे बयां करने को एक अर्से से लफ़्ज़ तलाश रहा हूँ
क्योंकि जज़्बात तो मेरे लिए अब वो ख़्वाब बन चुके हैं
जो ख़्वाब में भी भूले भटके नज़र नहीं आते
गर नज़र आ भी जाये तो महसूस नहीं होते
बस इतनी इल्तिज़ा है तुमसे
एक बार आकर मुझे मेरा वो हिस्सा लौटा दो
जिसके बिन जीना मेरा अब वो जीना नहीं रहा
जिसके बिन मैं अब वो पहले वाला मैं नहीं रहा।