कौन है वो, कहाँ से आई है
लगता है जैसे धूप की परछाई है
उम्र का असर ज़रा भी नहीं झलकता है
बातों में उसकी एक अल्हड़पन छलकता है
कई तज़ुर्बे हासिल किये, फिर भी खुद को नादान समझती है
ना जाने क्यूँ वो हर शख़्स को अपनी तरह इंसान समझती है
दग़ाबाज़ दुनिया ने उसे बेतहाशा लूटा है
तभी तो किरदार उसका खुद से ही रूठा है
नीर की तरह बेसबब बस बहती रहती है
औरों का ख्याल करके खुद प्यासी रहती है
बंदिशों में बंधी हुयी है, फिर भी खुद में आज़ाद घूमती है
दिल की दबी दुनिया को यह काग़ज़ पर आबाद करती है
पलकों पर अपनों के सपनों का बोझा लिए चल रही है
बाहर खुश लगती है पर अंदर कहीं न कहीं जल रही है
कौन है वो, कहाँ से आई है
लगता है जैसे आँखों की अंगड़ाई है।