काग़ज़ के कोरे-कोरे मैदान पर, अक़्ल के घोड़े दौड़ाता हूँ
मैं ठहरा लफ़्फ़ाज़ी लौहार, वज़्नी हर्फ़ के हथौड़े चलाता हूँ
साँसों की धौंकनी अंदर की आग को भड़काती है
एहसास की रौशनी अनदेखा सा कुछ दिखाती है
आहों से निकलता धुआँ नज़र नहीं आता है
यादों का पिघलता लोहा पल में जम जाता है
ना जाने कौनसी शक़्ल इख़्तियार करेगा, इसे भी नहीं पता
यह किस औज़ार की नस्ल तैयार करेगा, इसे भी नहीं पता
तपिश और वर्ज़िश के चलते, ज़हन भी थक जाता है
ख़लिश और गर्दिश के चलते, धूल से ये ढक जाता है
मेहनतकश मन के लिये ख़ुराक़ हैं ख़याल
सेहतमंद सोच के लिये क़िताब हैं ख़याल
दर्द की भट्टी में आँच तेज़ करते वक़्त, ये हाथ जल जाते हैं
क़लम की धार को तेज़ करते वक़्त, नर्म जज़्बात छिल जाते हैं
तसव्वुर के तारीक़ तहखाने में, हक़ीक़त के शोले भड़काता हूँ
मैं ठहरा लफ़्फ़ाज़ी लौहार, वज़्नी हर्फ़ के हथौड़े चलाता हूँ।
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