सीने में जो कहीं छुपा था, वो दर्द आवाज़ में नज़र आया
दिल में जो कहीं दबा था, वो दर्द काग़ज़ पर उतर आया
खुद को खोने का एहसास होने पर, कभी नहीं सोया मैं
हर बार यह एहसास होने पर, दो बार रोया मैं
पहला उस एहसास को लिखते वक़्त
दूसरा उस एहसास को पढ़ते वक़्त
दिल पर पत्थर रखकर, जाने कितने फैसले किये
दिल को नादान समझकर, दिमाग़ ने फैसले लिये
दिल फिर भी चुप रहा, महीनों तक मायूस रहा
वक़्त का वो वक़्त था, वक़्त था सो गुज़र गया
कोशिश करती आई ज़िंदगी, हर बार सुलह करवाने की
हर बार मगर बीच में ही इसकी याददाश्त चली जाती है
दिन महीने साल, सब गुज़र रहे भी हैं और नहीं भी
दिल और दिमाग़ के दरमियाँ, एक यही तग़ाफ़ुल है
सोच रहा हूँ इस बार कुछ अनकहा लिखूं
वही अनकहा जो खुद में महसूस करता हूँ।