लहू में हूँ, जिगर में हूँ, साँसों की हर लहर में हूँ
ज़रा आईना तो देखो जानाँ, मैं तेरी नज़र में हूँ।
पैरों को ठहराव अब भाता नहीं, भाये भी कैसे
जब से होश संभाला है, तब से ही सफ़र में हूँ।
इत्तेफ़ाक़न ही मिल जाओ, किसी मोड़ पे तुम
कितने बरसों के बाद, मैं आया तेरे शहर में हूँ।
ज़िंदगी को हमेशा, यही शिकायत रही मुझसे
सुकून से मैं घर पे नहीं, जीता भी सफ़र में हूँ।
सवाल पूछा जब दिलबर से, बोली वह माशूक शायर से
मैं तुम्हारी महबूब ग़ज़ल, जो कि बहर में हूँ।
एक ख़्वाब से जब बात हुई, तो उसने ये कहा
अँधेरी रात गुज़ारकर, मैं सुकूंभरी सहर में हूँ।
शीशा-ए-दिल हर रोज़ यह याद दिलाता है इरफ़ान
के मैं खुद को भूलकर किसी और के असर में हूँ।।