बदलते-बदलते आखिरकार पूरी तरह बदल गयी
गिरते-पड़ते चलते-चलते ज़िंदगी खुद संभल गयी।
कल को आज समझ बैठे, पल में कई सदियाँ समेटे
ये उम्र भी आखिर उम्र निकली, एक रोज़ ढ़ल गयी।
पकड़ने की बहुत कोशिश की, पर नतीजा यह निकला
के ज़िंदगी की मछली वक़्त के हाथों फिसल गयी।
पता ही नहीं चला कभी, कब दिन ढ़ला कब रात हुई
चुपके-चुपके दबे पाँव, तन्हाई मुझको निगल गयी।
सुना है कि पत्थरदिल पिघलते नहीं, गलत सुना है
मरते-मरते मौत भी खुद मौत देखकर पिघल गयी।
जो चाहा वो पाया, जो सोचा वो कर दिखाया
और कुछ नहीं बस मेरी तन्हाई मुझको खल गयी।
अब भी महसूस करता हूँ, वो तपिश अपने अंदर
ऐसी आग लगाई उसने कि रूह तक जल गयी।।
@राॅकशायर