अपने अंदर उस शख़्स को, बहुत पहले मार चुका हूँ मैं
जिस शख़्स की वज़ह से एक दिन, बहुत रोया था मैं।
मौत के एहसास की तरह था वो एहसास
जिस एहसास ने महीनों तक तड़पाया मुझे।
खुद से इस क़दर नफ़रत हो गयी थी
के कोई और बनकर जीना आदत हो गयी थी।
गुमनामी के अंधेरे से बचने के लिये
अपना नाम तक बदल लिया था मैंने।
मगर सितमगर माज़ी की परछाई, साथ कहां छोड़ती है
जिस तरफ न जाना हो, कदम यह उसी तरफ मोड़ती है।
बरसों लग गये मुझे, खुद को यह समझाने में
के कोई कसर न छोड़ी मैंने, खुद को आज़्माने में।
दर्द था जितना भी दिल में, काग़ज़ पर सब उड़ेल दिया
बद्दुआओं की बुनियाद पर, खड़ा यादों का महल किया।
खुद से भागते-भागते, आ पहुँचा उसी मोड़ पर
जिस मोड़ पर छोड़कर गया था, एक दिन मैं लाश अपनी।
अब किसे दफ़्नाऊं
और किसे जलाऊं
जब अपने अंदर खुद रहा ही ना मैं।
अब किसे सताऊं
और किसे रुलाऊं
जब अपने अंदर कुछ बचा ही ना मैं।।
@RockShayar