ये कैसा वहम है
जो मुझे होता है
हरपल हरघड़ी
ये कैसा वहम है।
कभी सच झूठ लगता है
कभी झूठ सच
तो कभी दोनों ही बेमानी लगते हैं।
जो डर इतना डराता है
असल में वो है ही नहीं
ये मन है कि उससे छुपता रहता है
हरपल यहाँ से वहाँ भागता रहता है।
सच और झूठ के तराजू का भी तो
एक तराजू होना चाहिए
अपने बनाए उसूलों को ही सब सही मान लेते हैं
बेशक कई सिक्कों के दो पहलू नहीं हुआ करते हैं।
मन को जो अच्छा लगता है
मन उसे ही हक़ीक़त मान लेता है
और जो इसकी समझ से परे होता है
उसे वहम का नकाब ओढ़ाकर
यह डर की पोटली में बंद कर देता है
डर को भी शायद खुद से डर लगता है
तभी तो यह अंधेरों में पलता है
और उजालों से जलता है।
कभी कभी जो सामने होता है
असल में वो होता ही नहीं है
और कभी कभी जो नहीं होता है
असल में वहीं हो जाता है।
वैसे ये ज़िन्दगी भी तो एक वहम ही है
जिसे मौत की आहट से ही डर लगता है
तभी तो ये खुद को इतना उलझाए रखती है
के ज़िन्दगी भर अपने ज़िन्दा होने के वहम में
यूँही तन्हा तन्हा सी गुज़रती चली जाती है।
ये कैसा वहम है
जो मुझे होता है
हरपल हरघड़ी
ये कैसा वहम है।।
@rockshayar.wordpress.com