वैसे तो मेरी हर नज़्म में सिर्फ तुम ही रहती हो
पता नहीं क्यों आजकल कहीं दिखती नहीं हो
हालाँकि अब भी तेरा ही ख़याल काफी है जीने के लिए
फिर भी हर ख़याल बेकरार है खुद काग़ज़ पर उतरने के लिए
कलम का तुमसे, न जाने क्या राब्ता है
दिल से जो गुज़रता है, ये वो रास्ता है
मिलती नहीं कभी कोई, नज़ीर बेनज़ीर के आगे
ज़ेहन में उलझते रहे, तन्हाई की तहरीर के धागे
तक़दीर के इन पन्नों पर, कुछ तो है जो ज़रूर लिखा है
तभी तो इस दिल को, दिल पढ़ने का ये शऊर मिला है
जमाने गुज़र गए, पर वक़्त अब भी वहीं है
यादों ने सींचा जिसे, वो दरख़्त अब भी वहीं है
वैसे तो मेरे हर अल्फ़ाज़ में सिर्फ तुम्हारा ही बयां है
पता नहीं क्यों आजकल वो एहसास कहीं खो गया है
हालाँकि अब भी तेरा ही ख़याल काफी है जीने के लिए
फिर भी हर ख़याल मुन्तज़िर है खुद काग़ज़ पर उतरने के लिए ।