मेरी यादों की कमीज़ पर
कई दफ़ा तुमने अपनी मुलायम हथेलियों से
एहसास की ज़रदोज़ी की है ।
नूर के रंग में रंगे धागों को जब भी तुम छूती हो
इनका रंग और भी गहरा हो जाता है ।
शायद तुम्हारे हाथों का लम्स पहचानते हैं ये
तभी तो मेरे छूते ही इनका रंग यूँ उड़ जाता है
जैसे शबनम का कोई क़तरा धूप में रखा हो ।
मेरे एहसास में अब तलक
वो दर्द की तपिश बाक़ी है
मगर जब भी ये कमीज़ पहनता हूँ
बारिश होने लगती है रूह पर
और वो तपिश पलभर में गायब हो जाती है ।
इसी कमीज़ की आस्तीन पर
एक फूल बना हुआ है
जो तभी खिलता है
जब तुम्हारी खुशबू की आमद होती है ।
इतनी हमराज़ हो चुकी है ये कमीज़
कि गर इसे उतारने की कोशिश करूँ
तो साथ में रूह भी उतरने लगती है
और वैसे भी इश्क़ का सुर्ख़ लिबास
कभी उतारे नहीं उतरता है ।
मेरी यादों की कमीज़ पर
तुम्हारे एहसास की ज़रदोज़ी
अब भी वैसी ही है
जैसी तुमने की थी
न ये बदली है, न मैं
दोनों वैसे के वैसे ही हैं आज तक ।।
@RockShayar