अपनी क़लम को न बचा सका मैं
बाज़ार के बदनीयत साये से
वक़्त के साथ साथ हम दोनों बदल गए
बदल तो गए
मगर ये बदलाव दिल को अखरता है बहुत ।
दिमाग का क्या है
उसे तो बहुत खुशी मिलती है
जब भी जज़्बातों से दूरी होती है ।
पर ये दिल तन्हाई में रोता है
गुज़रे दौर को याद करता है
अश्क़ नज़र न आ जाए किसी को
इसीलिए जब भी नहाता हूँ
तभी रोना मुनासिब लगता है
आख़िर चट्टानों की तरह मज़बूत वज़ूद का
इक़रार जो कर चुका हूँ ।
पता नहीं मेरी क़लम मुझे चलाती है
या मैं इसे
पर जो भी हो
हम दोनों को ही चलने का शऊर नहीं आता है
शर्तों में नहीं बंधने की
शर्त भी तो लगाई है खुद से ।
अपनी क़लम को न बचा सका मैं
खुद अपने ही दोगले किरदार से
वक़्त के साथ साथ बहुत कुछ बदल गया
बदल तो गया
मगर ये बदलाव दिल को अखरता है बहुत ।।