तमाम शब मैं तुझको निहारता ही रहा
और जिस्म में ये रूह उतारता ही रहा
कुछ अनकहे सवाल थे मेरी निगाहों में
कुछ अनछुए जवाब थे तेरी निगाहों में
चेहरे पर था शर्मो हया का पहरा घना
क़तरा क़तरा तुझमें होता रहा मैं फ़ना
संदली साँसों की लौ, रात भर जलाती रही मुझे
मख़मली बाहों की गिरह, पास बुलाती रही मुझे
दिल था जो मेरा, वो है अब कहीं तेरे सीने में
शामिल हुआ फिर से तू, अब कहीं मेरे जीने में
हाथों की लकीरों में हमने, इक दूजे को तलाशा है
फितूर ना कोई यूँही फ़क़त, मोहब्बत बेतहाशा है
तमाम शब मैं तुझको निहारता ही रहा
और जिस्म में ये रूह उतारता ही रहा ।।