दफ्तर की बोरिंग, नौकरी बजाकर
डायरी को अपनी, दिल से लगाकर
निकल पड़ा, जो कल शाम को मैं
सीने में लिए, चंद एहसास को मैं
ढूंढता रहा जिसे, यहाँ वहाँ गली गली
मज़लिस वो उम्दा, फिर मुझको मिली
रूह तरबतर हुई, खिल उठी मन की कली
रूहानी अंदाज़ में, धीरे धीरे वो शमा जली
अजनबी से चेहरें, लगने लगे सब अपने से
ज़हन की वादी में, फलने लगे जो सपने से
दौर चला फिर, एक एक करके जो शायरी का
धक धक करने लगा, वो दिल मेरी डायरी का
एक जनाब, जो थे बड़े ज़हीन से आर्टिस्ट वहाँ
देने लगे वो धीरे धीरे, लम्हों को स्केच की ज़ुबां
गर्म गर्म चाय, और साथ में क्रंची कुरकुरे पकौड़े
बेहद लज़्ज़तदार, कविताओं के वो अंतरे मुखड़े
बाद उसके, सिलसिला चला जो फोटोसेशन का
मुस्कुराते खिलखिलाते हुए से, टंडन मेंशन का
रुख़सत के वक़्त सबने, फिर मिलने का वादा किया
अदब-ओ-एहतराम से, दिल जोड़ने का वादा किया
यादगार सी इक शाम, संग लिए नज़्म-ओ-ग़ज़ल
गुलाबी फ़िज़ा में फिर, जल उठी शमा-ए-महफ़िल