
कल रात यूँही
देर तक जागते हुए
अपनी कुछ, पुरानी नज़्में पढ़ी मैंने
लिखी थी, जो उस दौर में
जब अल्फ़ाज़ थे कम
और, जज़्बात ज्यादा
कहीं कहीं पर
ख़ामियाँ है बहुत
जो मालूम हुई है अब
यूँ आहिस्ता आहिस्ता
उस दौर में भी थी, ये शायद
मगर छुपी थी, गर्दिशों में कहीं
ज्यादातर लफ्ज़, दर्द में सने हुए है
तब मुझे, वक़्त के दरिया में
यूँ, तैरना भी तो नहीं आता था
एहसास के सागर में, घण्टो तक
बस यूँही, पाँव डुबोये रखता था
डर था, कहीं कोई जूनूनी लहर
खींच कर, ना ले जाये कभी अपनी ओर
नज़्म, ग़ज़ल, रुबाई, अशआर
क़ाफ़िया, मतला, नुक़्ता, शेर
किरदार सब, अजनबी थे मेरे लिए
ना कोई उसूल था, ना कोई आदाब
ना कोई वुज़ूद था, ना कोई अंदाज़
कुछ भी नहीं था, मेरे पास
हाँ, इक दर्द रहता था बस
सीने में कहीं, गहरा सा
जो, दिखता नहीं था
बस, रात में अक्सर
यूँ निकल आया करता था बाहर
दबे पाँव, किसी चोर कि तरह
अश्क़ों की सियाह चादर से
अपना नम चेहरा ढके हुए
रिश्तों के लहू में
डूबा हुआ इक खंज़र
जो अटका रह गया था
भीतर कहीं
नोक से उसकी
टपकते हुए, कतरो को
एक जगह, जमा कर के
फिर जो, लिखना शुरू किया मैंने
तो बस, लिखता ही चला गया
फिर रुका नहीं कभी, किसी मोड़ पे
वो शुरूआती दौर, अब गुज़र चुका है
मगर, कुछ खुरदुरे से निशां
अब भी बाकी है, रूह की पेशानी पर
कहीं कहीं, लाल लाल से चकते बन गए है
जिनका सुर्ख़ रंग, कभी कभी
यूँ उतर आता है, आँखों में
जैसे पलकों की, कट गई हो रग कोई
और हौले हौले, वहाँ से रिस रहा हो खूं
कल रात यूँही
देर तक जागते हुए
अपनी कुछ, पुरानी यादें टटोली मैंने
सहेजी थी, जो उस दौर में
जब अल्फ़ाज़ थे कम
और, जज़्बात ज्यादा
© RockShayar
(Irfan Ali Khan)