चेहरों पर यूँ नूर झलकने लगा
ईद के लिये ज़र्रा ज़र्रा बेताब हैं
लौट आया हैं फिर एक परिन्दा
ईंद मनाने को अपने आशियां में
चेहरों पर यूँ नूर झलकने लगा
ईद के लिये ज़र्रा ज़र्रा बेताब हैं
लौट आया हैं फिर एक परिन्दा
ईंद मनाने को अपने आशियां में
My little poetic tribute to our brave soldiers on the occasion of Kargil Vijay Diwas……Lets celebrate the hilarious victory by enhance our participation in MISSION INDIA 2020………Jai Hind
रगों में शौर्य और साहस का लहू
दिल में वतन से इश्क़ का जूनून
मिट्टी को माथे पर लगाकर
चल पङे थे फिर वो जाँबाज
खूं के हर इक कतरे में जिनके
मुल्क़ से मुहब्बत का शर्फ़ हैं
सांसो की माला के मोती भी
शुजाअत के धागों में पिरोये हुए
आँखों में बस एक ही ख्वाब था
जंग में फतह हासिल करते हुए
शहादत का नूरानी ताज पहन सके
अज़ीम-ओ-शान हैं वो पाकीज़ा रूह
निसार कर दी जिसने अपनी पूरी जिंदगी
वतन की हिफ़ाज़त के लिए
ऐ हिन्द के नौजवां, ज़रा अपने अंदर झांक
कहाँ गया वो उबाल, कहाँ हैं वो जोश-ओ-जूनूं
मुल्क़ को आज जरूरत है उसकी
चारों तरफ बुराई फैली हुई हैं
उखाङ फेंको उस शैतान को
छुपा हैं जो सबके भीतर
खोखला कर रहा हैं देश की जङो को
याद करो उन शहीदों की कुर्बानी
अब वक्त आ गया हैं
अधर्म के विरुद्ध बिगुल बजाने का
अमर वीर जवानों ने तो
अपना हक अदा कर दिया
पर क्यां एक आम भारतीय
मुल्क़ की खातिर कुछ कर रहा हैं
आईये मिलकर हम सब दृढ संकल्प लें
मातृभूमि के लिए कुछ ऐसा करे
हिन्दोस्तां को हम पर भी नाज़ हो
यहीं हमारी सच्ची सलामी होगी
उन सभी शहीदों के लिए, दिल से
सही मायनों में सलाम-ए- फ़तह
रूख़सत की घङी नजदीक हैं
कायनात हो रही यूँ ग़मज़दा
माह-ए-रमज़ां की मुहब्बत में
हर ख्वाहिश हैं खुद से ज़ुदा
हरे भरे पेङ, शाखें फैलाये हुए
झूम रहे हैं, यूँ हवाओं के संग
आसमां के नीले दुपट्टे को तक रहे
हरे पत्तों में मिट्टी का शर्फ़ नज़र आता हैं
सूरज की रोशनी, बादलों से छनकर
गिरे जब इन पर, एक सतरंगी छल्ला बन जाता हैं
आसमां जिसे पहनता हैं, ताज की तरह
काली घटाए सर्द हवा को छूकर, बरसने लगती
और भींग जाता हैं, ज़मीं का मटमैला आंचल
कभी कभी, धूल पनाह ले लेती हैं इन पर
हरी हरी पत्तियों पर परत सी बिछ जाती हैं
दम घुटने लगता हैं, इन बेज़ुबां पेङो का
ज़र्द होकर फिर टूट जाते हैं पत्तें, धीरे धीरे
लोग कचरा समझकर बुहार देते हैं
आसमां चुपचाप ये सब देखता रहता
दर्द की इन्तहा, जब हद से गुज़रे
तब कुछ अश्क़ छलक जाते उसकी पलकों से
जिसे हम अक्सर बारिश कह देते हैं
पौधों की मुरझाई रूह, खिल उठती हैं फिर से
बाहें पसार कर वो इकरार-ए-मुहब्बत करते हैं
कायनात की सब्ज़ निगाहें, गवाह हैं उस मँजर की
उसी दरख़्त के साये तले बैंठकर
मुझको भी आज सब्ज़ एहसास हुआ
रमज़ान-उल-मुबारक की क़ैफ़ियत यूँ
गुनाहो की बख्श़िश हर पल हर घङी
अलसुबह ख़्वाब में आज
दीदार हो गया तुम्हारा
वहीं नूरानी चेहरा, वहीं सुरमई निगाहें
वहीं शोख़ अन्दाज, वहीं रेशमी जुल्फें
रूख़ पर हया का हिजाब, साँसों में महकता गुलाब
महफूज़ हैं जिसके चंद कतरे
अब तक मेरी डायरी में
वक्त की धूप में भले ही सूख गए
ख़ुशबू मगर उनमें, आज भी तुम्हारी आती हैं
दिल-ए-नादां, फिर धङकने लगा हैं
जबसे सुनी हैं तुमने, रूह की ग़ुज़ारिश
बैचेन थी कई दिनों से, ज़िस्म के चोगे में
तुम्हारे होने का एहसास, ज़िन्दा रखता हैं इसे
ख़्वाब में लिखी हैं मैंने, तुम पर कई नज़्म
पढकर जिसे तुमने यूँ कहा, क्यूँ करते हो ये….
शायद तुम्हें फ़िक्र हैं, आने वाले कल की
और मैंने बस इतना ही कहा…
हयात में ना सही, तसव्वुर में इज़ाज़त दे दो
कुछ वक्फ़ा यूँही, बस साथ गुज़ारने की
जाने कैसी सूफ़ीयाना कशिश हैं तुझमें
इक डोर खींचती रहती हैं, मुझे तेरी ओर
बेइंतहा मुहब्बत का ज़ूनूं, लहू में रवां हो गया
दर्द हो गए सब फ़ना, ब़ाक़ी हैं तो सिर्फ एहसास
इश्क़ दी बूटी पीकर, सोया था कल रात
अलसुबह ख़्वाब में आज
दीदार हो गया तुम्हारा
सरवर-ए-कायनात के उम्मतीयों पर
अल्लाह की नवाज़िश हैं शब-ए-क़द्र
सुकूं की परछाई
तलाशते रहते हैं, सब यहाँ
किसी को भीड़ अच्छी लगे
कोई तन्हाई में जलता हैं
सफ़र एक हैं मगर
नज़रिया अलग अलग
हर शख्स यहाँ
इक दूजे से अलहदा हैं
अपना पता पूंछते रहते हैं, सब यहाँ
किसी को ख़ामोशी अच्छी लगे
कोई शोर में पलता हैं
ख्वाहिश एक हैं मगर
फ़लसफ़ा ज़ुदा ज़ुदा
हर रूह यहाँ
इक दूजे से अलहदा हैं
जाने कितने रूप
बदलती हैं ये ज़िंदगी
हर दिन इक नया सवेरा
यूँ पिटारे से निकालकर
रख देती हैं सिरहाने पर
किसी को ख्वाब सच्चे लगे
कोई हक़ीक़त में जीता हैं
मंज़िल एक हैं मगर
रास्ते अलग अलग
हर एहसास यहाँ
इक दूजे से अलहदा हैं
ना जाने वो कोनसा रंग हैं
जो मुझमेँ घुल गया हैं
तख़लीक़ करता रहता
हर पल इक नया समां
शायद कोई क़िरदार, अब भी
अधूरा हैं मुझमेँ कहीं
सुकूं की परछाई, ढूंढ रहा हैं
बारिश में भींगकर आज
गीली हो गई हैं
ये डायरी मेरी
रखता हूँ जिसे हर घड़ी
जेब में यूँ सम्भालकर
ज्योंही दिल में कोई ख़्याल आता हैं
झट से उतार देता हूँ
इस डर से की कहीं
उड़ ना जाए वो ख्याल
ज़हन की तश्तरी से
भांप बनकर यूँही
भींगी भींगी सी ये डायरी
जाने क्यूँ अब हल्की हल्की लग रही हैं
शायद कुछ वज़नी अल्फ़ाज़
नमी के साथ बह गए हैं
मगर वो आखिरी पन्ना
जिस पर लिखा हैं नाम तुम्हारा
अब भी ख़ुश्क़ ही हैं
एहसास का इक रेशमी गिलाफ
उसकी हिफाज़त करता रहता हैं
बीच बीच के कुछ पन्नें
आधे सूखे, आधे गीले
जैसे कोई शैदाई
महबूब को याद कर
कभी हँसता हैं, कभी रोता हैं
एक अधूरी ग़ज़ल, भीगी हुई
कोने में, यूँ दुबककर बैंठी हैं
मानो कोई बुरा ख़्वाब देखा हो
डरी हुई, सहमी हुई, काँपती हुई
मेने कुछ गर्म साँसे उड़ेल दी, इस पर
जैसे सर्दियों में तुम
मुंह से निकलते धुंए को
मुझ पर उड़ेला करती थी
ना जाने, वो लम्हा कहाँ ग़ुम हो गया हैं
ख़्वाब में भी अब, नज़र नहीं आता
शायद किसी नज़्म के साथ
वो भी बह गया हैं
बारिश में भींगकर आज
गीली हो गई हैं
ये डायरी मेरी
—————————
हजारों साल की इबादत जितना अज़्र
माह-ए-रमज़ान की इक शब में छुपा हैं
खुशबू सी तैरती हैं, फ़िज़ा में
तन को जब छूती हैं
राहत मिल जाती हैं
ख़ामोशी को चीरकर
बात करते हैं, पवन के झोंके
कोई बंदिश नहीं
ना कोई सरहद हैं
उड़ते रहते हैं बस, यहाँ से वहाँ
ख्वाहिशों की तरह
ज़िंदगी कितनी आसां होती
गर बन जाते हम, पवन के झोंके
आज़ादी को हर दिन महसूस करते
हर पल इक नया समां बुन लेते
मदहोशी सी रहती हैं, हवा में
जिस्म को जब छूती हैं
रूह महक जाती हैं
जुनूं को पीकर
बयां करते हैं, पवन के झोंके
कोई मंज़िल नहीं
ना कोई हसरत हैं
मचलते रहते हैं बस, यहाँ से वहाँ
परिंदो की तरह
खुले आसमां में
ज़िन्दगी कितनी आसां होती
गर बन जाते हम, पवन के झोंके
बादलो को हर पल महसूस करते
हर दिन इक नया रंग भर देते
खुमारी इक बहती हैं, बहार में
मन को जब छूती हैं
राहत मिल जाती हैं
ग़र्द को दूर कर
सांस लेते हैं, पवन के झोंके
ज़िन्दगी कितनी आसां होती
गर बन जाते हम, पवन के झोंके
जिस्मानी ख्वाहिशें फ़ना कर दे
रूह का तआरूफ़ फिर होगा तुझे
माह-ए-रमज़ां का आखिरी अशरा
जहन्नुम की आग से हिफ़ाज़त हैं
नज़्म तराशते हुए कल
छिल गए कुछ ख़्याल
ज़हन की गहराईयों में
रूपोश हो गए
तदबीर तो बहुत की
मगर, वो आड़े तिरछे एहसास
ख़लाओं में ग़ुम हो गए कहीं
तफ्तीश करता रहा मैं रातभर
ख्वाबों की नदी में
कागज़ की कश्ती पर
लफ्ज़ की पतवार थामे
दूर कहीं, वो ख़्याल नज़र आया
किनारे पर पड़ा था यूँ
जैसे लहरो ने लाकर, अभी फेंका हो
जगह जगह से कटा हुआ
काँपता हुआ, सहमा हुआ, इक ख़्याल
कलम की चादर ओढ़ाकर मेने
जला दिया फिर, नज़्म का अलाव
खुदको तलाशते हुए कल
मिल गए कुछ जवाब
रूह की परछाई में
दफ़न थे जो
तहरीर सी लिखी हैं, दिल पर
वो रेशमी सुनहरे ज़ज्बात
मुझमे बस गए हैं कहीं
दीदार करता रहा मैं रातभर
चाँद की रौशनी में
ख्वाहिशों की ज़मीं पर
अल्फ़ाज़ की डोर थामे
दूर कहीं, वो ख़्याल नज़र आया
ख़ामोशी से लिपटा था यूँ
जैसे बेचैनियों ने आकर, अभी सींचा हो
जगह जगह से फटा हुआ
ठिठुरता हुआ, भींगा हुआ, इक ख़्याल
हर्फ़ का लिबास पहनाकर मेने
जला दिया फिर, नज़्म का अलाव
मिट्टी में ही मिलना हैं, जब इक दिन तुझे
फिर इस दुनिया से, तू क्यूँ दिल लगाता हैं
उन्मुक्त विचारों की
एक नदी बहती हैं
हर पल, मेरे भीतर कहीं
नीले गगन में जैसे
उड़ रहें हो, पंछी कई
पंख पसारे हुए
कोई सीमा नहीं
ना कोई बंधन हैं
भर रहें हैं बस
स्वछन्द उड़ान
स्वतंत्र हवाओ की
एक ध्वनि गूंजती हैं
हर पल, मेरे अंदर कहीं
घने अंधेरो में जैसे
खुल रहें हो, बंद किवाड़
पलकें सजाये हुए
कर रहें हैं बस
स्वागत मेरा
सब्ज़ बहारो की
एक वादी महकती हैं
हर पल, मेरे भीतर कहीं
सर्द फ़िज़ा में जैसे
तैर रहें हो, नर्म एहसास
खुशबू बिखेरे हुए
कोई हैरानी नहीं
ना कोई जिज्ञासा हैं
छू रहें हैं बस
रूह को
खामोश नज़ारो की
एक शाम ढलती हैं
हर पल, मुझमे कहीं
ख़ुश्क लम्हों में जैसे
बुन रहें हो, ताने कई
लफ्ज़ बिछाये हुए
कोई अंदाज़ नहीं
ना कोई परिभाषा हैं
बयां हो रहें हैं बस
कागज़ पर
साँस लेते ख़्यालों की
एक नदी बहती हैं
हर पल, मेरे भीतर कहीं..
ज़िक्र-ए-इलाही में, इस कदर मसरूफ़ हो
हर चीज तेरी फिर, एक इबादत बन जाये
ज़िंदगी जीना, मुझे अब आ रहा
हर रंग इसका, दिल को भा रहा
वक़्त की नदी में, धुल गए ज़ख्म
पीकर जुनूं फिर, दर्द कोई ना रहा
हालात के संग, यूँही ढलता गया
रूह में उतरकर, खुदको मैं पा रहा
चांदनी रातो में, बह गए ख्याल
ग़ज़ल का ख़ुमार, साँसों में छा रहा
नादान परिंदे सा, हैं ये मन मेरा
इश्क़ में भींगे, सूफ़ी तराने गा रहा
हयात तो हैं, फ़क़त इक तज़ुर्बा
हर रूप इसका, मुझे यूँ भा रहा
ज़िंदगी इक बार मिली हैं, यूँही ना इसे गँवा
बंदिशे सब तोड़ दे, और खुदको तू गले लगा
तुझमे ही छुपा हैं, राज़ तेरी कामयाबी का
नींद को भुला दे, और सोये ख्वाब फिर जगा
ख़ामोशी को मिटाकर, छेड़ कोई राग नया
लहरो को मोड़ दे, और संग उनके बहके दिखा
खुद की तलाश में, तन्हा चलता जा
बीते ढर्रे छोड़ दे, और राहें तू अपनी खुद बना
एहसास को छूकर, ख़्याल बुनता जा
दर्द को निचोड़ दे, और रूह पर अल्फ़ाज़ सजा
वक़्त के थपेड़ो से, यूँही उलझते हुए
क्या हैं तेरा वज़ूद, दुनिया को अब ये तू बता
आज भी मैं वहीं खङा हूँ
जहाँ छोङ कर गए थे तुम
ये कहकर की
पहली बारिश में मिलेंगे कहीं
जब वादियां होगी हरी भरी
और चाहत की ज़मीं पर
महकने लगेंगे अनगिनत एहसास
मगर ऐसा हुआ नही
सावन भी आ गया हैं
बादल बाहें खोले यूँ बरसते हैं
कुछ बादल मेरी आँखों में बस गए
जब तेरा वादा याद आता हैं
पलकें भींग जाती हैं ज़मीं की तरह
दिल को बेपनाह यक़ीं हैं
अपने सूफ़ी फ़तूर पर
बेशुमार लज्ज़त मिलती हैं इसे
तेरे ख्याल में रूह जलाने से
तन्हाई में अक्सर पूंछता हूँ
खुद से मैं ये सवाल
जवाब मगर कभी मिलता नही
हाँ कुछ साँसें और मिल जाती हैं
ज़िन्दा रहने के लिए बस
शायद यही फैसला हैं, हयात का
मैं फिर भी वहीं खङा हूँ,
जहाँ छोङ कर गए थे तुम
ये कहकर की
अब ख्वाबों में मिलेंगे कभी
जब चाँदनी रात होगी
और दिल की ज़मीं पर
महकने लगेंगे अनगिनत एहसास
दिल ये मेरा इक तुझें चाहता हैं
हर घडी बस नाम तेरा पुकारता हैं
अजनबी राहों से गुज़रते हुए
ख्वाबों में यूँ नक़्श तेरा तलाशता हैं
एक झलक को बेताब ये दिल
हर पल बस तेरा ख़्याल सोचता हैं
तुझमें अपनी साँसे छुपाकर
सरगोशी से तेरा पता पूंछता हैं
दिल को जब से छुआ तुमने
ग़ज़ल में यूँ तुमको संवारता हैं
गुज़रे दर्द से ज़ख़्मी ये दिल
हयात में बस साथ तेरा मांगता हैं
ज़र्रे ज़र्रे से टपक रहा हैं नूर
फ़िज़ा में बह रही ख़ुमारी
काली घटाओं के हूज़ूम
भींगो रहे हैं, ज़मीं को
सर्द हवाओं की सोहबत में
रेज़ा रेज़ा छलक रहा हैं
आसमां की पलकों से
यूँ बह रही हैं ज़िंदगी
तपती धूप में तन को
जैसे मिल जाए कोई पेड़ घना
कुछ वैसा ही,
एहसास हैं पहली बारिश का
मिटटी की सौंधी ख़ुशबू
रूह में घुलने लगी हैं
सावन के इश्क़ में
डूब रही हैं सारी कायनात
गहरे ज़ख्मो पर, हौले से
जैसे लगाये कोई मरहम दवा
कुछ वैसा ही,
एहसास हैं पहली बारिश का
पेड़ पोधे सब खिल गए
हर तरफ बिछी हैं सब्ज़ चादर
घने बादलो के साये
तर कर रहे हैं, ज़मीं को
कतरा कतरा बरस रहा हैं
हसीं वादियों की चाहत में
कुदरत की पलकों से
यूँ रिस रही हैं ज़िंदगी
चांदनी रातों में मन को
जैसे छू जाये इक रेशमी ख़्याल
कुछ वैसा ही,
एहसास हैं पहली बारिश का
फूलों की भीनी महक
साँसों में घुलने लगी हैं
मौसम के रंग में
रंग गयी हैं पूरी कायनात
तन्हा सफ़र में दिल को
जैसे मिल जाए कोई नेक वफ़ा
कुछ वैसा ही,
एहसास हैं पहली बारिश का
जाने ये कैसी, ज़ुल्म की आंधी हैं
हर तरफ ज़मीं पर बस
लहू ही लहू नज़र आता हैं
बेगुनाहों की चींखें, दब गई हैं
अनगिनत लाशों के ढेर में कहीं
कई मासूम चिराग बुझा दिए
वहशत के तूफ़ान ने
फ़िज़ा में बस, गोलियां बरसती हैं
जख्मी हो गई हैं इंसानियत
इक दूसरे के खूं के प्यासे
हैं ये सब भेड़िये
शक्ल से तो ये भी इन्सां लगते हैं
हरकतें मगर जानवर से बदतर
अपनी दरिंदगी को अक्सर ये
मजहब का नाम दे देते हैं
मैं पूंछना चाहता हूँ उनसे
आखिर कब तक, यूँ बदनाम करते रहोगे
इस्लाम के पाक़ीज़ा उसूलो को
अपनी हैवानियत की खातिर
क्या तुम्हे ख़ुदा का, जरा भी ख़ौफ़ नही
आखिर कब तक, लोगो को गुमराह करोगे
यूँ ज़िहाद के नाम पर
क्यां तुम भूल गए हो, अल्लाह का वो पैग़ाम
कुरआन-ए-मज़ीद में, फ़रमाया हैं जिन्होंने
“अगर किसी ने एक बेगुनाह को बेवज़ह क़त्ल किया
तो गोया उसने पूरी इंसानियत को क़त्ल किया”
क्यां तुम भूल गए, सरकार-ए-मदीना की ज़िंदगी
ताउम्र इंसानियत, सच्चाई, नेकी के रहनुमा
आखिर कब तक, हक़ीक़त को यूँ झुठलाओगे
कभी तो अपने गुनाहो पर नज़र डालो
कितनी खौफ़नाक सज़ा होगी इनकी
अभी भी वक़्त हैं, सच्चे दिल से तौबा कर लो
ख़ुदा की मख्लूक़ से, मुहब्बत करना सीखों
बहुत फैला चुके हो, नफरत का ज़हर
ख़ुदा की बनायीं इस क़ायनात पर
बस, अब और नहीं
आओं, मिलकर हम सब
अमन का इक नया जहां बनाये
ज़ुल्म-ओ-दहशत के खिलाफ
एक सुर में, सब आवाज़ उठाये
ना हो, इस ज़मीं पर
अब कहीं भी कोई ख़ून ख़राबा
तब जाकर ही हम
इन्सां होने का अपना, हक़ अदा कर पायेंगे
और शायद मौत के बाद, सुकूं से सो पायेंगे
नहीं तो हर पल, ज़ुल्म का साया
यूँही मंडराता रहेगा
और बेगुनाहों के लहू से
अपनी प्यास बुझाता रहेगा
तो चलो, आज ज़रा ग़ौर-ओ-फ़िक्र करे
आखिर हम यूँही ज़ुल्म सहते रहेंगे
या फिर अपने दिल की आवाज़ सुनेंगे
निगाहों को अश्क़ो से भिगो लेता हूँ
मैं जब जज़्बाती होता हूँ, रो लेता हूँ
रातभर चाँद को निहारते हुए
ख्वाबों के आग़ोश में फिर सो लेता हूँ
यादों की नदी जब छलकती हैं
जुनूं में बहकर पलकें धो लेता हूँ
जुदाई में तुम्हे यूँ सोचते हुए
दूर होकर भी तेरे पास हो लेता हूँ
साँसों की माला जब टूटती हैं
हयात के बिखरे मोती पिरो लेता हूँ
ग़मों की बंजर ज़मीं खुरच कर यूँ
मैं ख़ुशी के बीज फिर बो लेता हूँ
इफ़्तारी करने जब रोज़ेदार बैंठता हैं
दुआ उस वक्त की कोई रद्द नही होती
सावन की पहली, बारिश हो तुम
घटाओ में सिमटी, ख़्वाहिश हो तुम
फ़िज़ाओ में खुशबू, बिखेरती हुई
आसमां से उतरी, सिफ़ारिश हो तुम
ज़िन्दा होने का, एहसास हैं तुमसे
ख़ुद़ा की मुझ पर, नवाज़िश हो तुम
इक बेनज़ीर हो, तुम्हे देखू तो कैसे
रूह पर हुस्न की, तराव़िश हो तुम
ग़ज़ल में यूँ, तुम्हे सजाऊ तो कैसे
दिल पे लिखी हुई, निग़ारिश हो तुम
लफ्ज़ो में बयां, ना कर पाऊ जिसे
मेरी वोह अधूरी, गुज़ारिश हो तुम
(c) IrFaN ‘MirZa’
ख़्वाहिश – Desire
सिफ़ारिश – Pleading
नवाज़िश – Mercy
बेनज़ीर – Unique
हुस्न – Beauty
तराव़िश – Spray
निग़ारिश – Manuscript
गुज़ारिश – Request
वोह जो रूह हैं, शायर की
हर पल, इक नया ताना बुन लेती हैं
कोई गिरह उसमे, नज़र नहीं आती
अलग अलग रंगो के धागे
दिखते हैं बस
उन्ही धागो से मिलकर
बनता हैं, नज़्म का बिछौना
बूढ़े सफ़ेद कुर्ते सा नहीं
जवां चटक कमीज़ की तरह
तन्हा रातों में, ठिठुरती हुई
वोह जो रूह हैं, शायर की
अक्सर, ओढ़ लेती हैं इसे
ख्यालो को तपिश, मिलती रहती
लफ्ज़ो के ऊनी गिलाफ से
सूफियाना हैं, जिसकी खुशबू
उसी खुशबू को पीकर
छलकता हैं, ग़ज़ल का सागर
किसी खुश्क़ दरिया सा नहीं
इक उफनते सैलाब की तरह
ख़ामोशी में जलती हुई
वोह जो रूह हैं, शायर की
अक्सर इसमें डूब जाती हैं
कलम को कुव्वत, मिलती रहती
बैचैनी के धड़कते सायों से
बेआवाज़ हैं, जिसकी सदाये
कागज़ पर, यूँ उतरती हैं नज़्म
जैसे चांदनी रातों में
चाँद उतर आता हैं, ज़मी पर
सितारों के जहां की
रौशनी को महफूज़ रखकर
वैसे ही अब शायद
वोह जो रूह हैं, शायर की
मुझमेँ कहीं बस गई हैं
बता, वोह रूह कौनसी हैं…..
*** इरफ़ान ‘मिर्ज़ा” ***
इक शख्स मुझे फिर जीना सीखा रहा
जागते सुनहरे कई ख्वाब दिखा रहा
ज़ख्मो पर इश्क़ का मरहम लगाकर
चाहत के मुझमें वो अरमां जगा रहा
ख्यालों में मेरे हरपल महफूज़ होकर
मुहब्बत के फ़साने मुझमें सजा रहा
तन्हाई मे हरदम यूँ साथ निभाकर
मुलाकात में फिर वो नजरे चुरा रहा
खुशीयों के चहकते लम्हे ओंढकर
गमों की वोह तपती धूप हटा रहा
उल्फत से अपनी मुझे नवाज़ कर
शिद्दत से मेरे वो सब दर्द मिटा रहा
कल रात यूँही मैं
नज़्म लिखते लिखते सो गया
कागज़ का वोह पुर्ज़ा
दबा रह गया, जो सिरहाने के नीचे
उतारे थे, जिस पर कुछ एहसास
दिल की स्याही से मेने
रात भर ख़्याल, जगाते रहे मुझे
ख्वाबों का, इक जहां दिखाते रहे
कुछ ख़्याल, दर्द में डूबे हुए
कुछ, यादों में भीगे हुए
और कुछ अनछुवे से
छूने की जब कोशिश की
नींद खुल गई उस वक़्त
और बिखर गए सब ख़्याल
बाकी हैं तो, बस इक खुशबू
महफूज़ कर रहा हूँ जिसे
लफ्ज़ो के लिबास में
कल रात यूँही मैं
एहसास बुनते बुनते सो गया
हसरतों का इक बादल
दबा रह गया, जो तकिये के नीचे
ठहरे थे, जिस पर कुछ जज्बात
रूह के, नर्म आगोश में
रात भर अल्फ़ाज़, भिगोते रहे मुझे
नज़्म का, इक मकां बनाते रहे
कुछ हर्फ़, इश्क़ में घुले हुए
कुछ, तन्हाई से धुले हुए
और कुछ मखमली से
पकड़ने की जब कोशिश की
नींद खुल गई उसी वक़्त
और बह गए सब अल्फ़ाज़
बाकी है तो, बस वहीं खुशबू
महसूस कर रहा हूँ जिसे
डायरी के पन्नो पर
कल रात यूँही मैं
नज़्म लिखते लिखते सो गया
जाने कब आयेंगे अच्छे दिन
हर शख्स के मन में आजकल
उठता हैं बस यही सवाल
आसमां छूती महंगाई
कमर तोड़ रही हैं
एक झटके में नही
हर रोज किश्तों में
दो वक्त की रोटी के लिए
हर आदमी यहाँ दौङ रहा हैं
धूप हो या छाँव
तन को जला रहा हैं
कोई मेहनत करके पसीना बहाता हैं
और कोई मजहब के नाम पर लहू
कहीं भी ईमान की परछाई नही दिखती
भूख से बैचेन वो बच्चा
बैंठा हैं जो फुटपाथ पर
पूँछता हैं बस यही सवाल
जाने कब आयेंगे अच्छे दिन
ऊँची डिग्रीया लेकर भी
बेरोजगार हैं सब नौजवान
नौकरी की तलाश में
मारे मारे यूँ भटक रहे हैं
कहीं भी सच्चाई को पनाह नही मिलती
कुछ ने ख्वाबों का गला घोंट दिया
और कुछ ने ज़मीर ही बैच दिया
निराशा से कुंठित वो युवक
खड़ा हैं जो कतार में
पूँछता हैं बस यही सवाल
जाने कब आयेंगे अच्छे दिन
बारिश के इंतज़ार में
आँखें पड़ गयी हैं पीली
बंजर हो गए सारे खेत
कहीं भी उम्मीद की किरण नहीं दिखती
किसी ने फिर शहर का रूख अपनाया
और किसी ने मौत को गले लगाया
बेबसी से लाचार वो किसान
डूबा हैं जो क़र्ज़ में
पूँछता हैं बस यही सवाल
जाने कब आयेंगे अच्छे दिन
जाने कब आयेंगे अच्छे दिन
*** इरफ़ान “मिर्ज़ा” ***
ऐ दिल, तू क्यूँ मायूस रहता हैं
जिन्दगी को गले लगाकर ही यहाँ
मिलेगा तुझे एक नया रास्ता
ले जायेगा जो अपने जहां में
हर ख्वाहिश जहाँ पूरी होगी तेरी
उम्मीदों को इक नई रोशनी मिलेगी
वहीं रोशनी, जिसकी तलाश में
तू दर बदर भटकता रहा हैं
तेरी हर कोशिश गवाह हैं
उस वक्त की
जब तू गिरता रहा
उठता रहा
सम्भलता रहा
और खुद को यूँ
हौंसला देता रहा
ऐ दिल, तू क्यूँ बैचेन रहता हैं
दर्द में रूह को जलाकर ही यहाँ
होगा तुझे फिर दीदार तेरा
फिरसे जीने की इक वजह मिल जाये
मुझको या रब तेरी पनाह मिल जाये
खुली हवा में साँस ले सकू जहाँ मैं
सूकून की ऐसी कोई जगह मिल जाये
अन्धेरों में क़ैद हूँ सदियों से यहाँ मैं
मुझको नूर का वोह साया मिल जाये
गुज़रे वक्त के दर्द को भुलाकर यहाँ
हयात को सच्ची इक वफ़ा मिल जाये
गुनाहो में पलता रहा हैं मेरा वज़ूद
रूह को मेरी बस नेक दुआ मिल जाये
मर्ज़ी से जी सकू हर लम्हा जहाँ मैं
ख्वाबों का ऐसा इक जहां मिल जाये
फ़क़त गुज़ारिश कर रहा यूँ ‘इरफ़ान’
मुझको जिन्दगी तेरा पता मिल जाये
कोहरे से लिपटी हुई
नीली नीली सी खामोशी
शबनम की चादर बिछी हैं दूर तक
ज़मीं के बदन पर
हौले हौले जब इस पर
पङती हैं सूरज की पहली किरन
यूँ लगता हैं जैसै रातभर
चाँद ने बरसाई हैं चाँदनी
ठण्डी ठण्डी हवाए
छेङती हैं कायनात के सुर
और वोह दूर कहीं, ज़िन्दा होती हैं सहर
आँखें खोलती हैं, आहिस्ता आहिस्ता
शब के अन्धेरे को धीरे धीरे
अपनी रोशनी में छुपा लेती
ज़र्रा ज़र्रा साँस लेता हैं, आगोश में इसके
बादलो का इक जत्था
उतरता हैं पहाङो पर
सुबह के आँचल को छूने के लिए
महकती हुई फिज़ाए
सुनाती हैं परिन्दो को नगमे
और वोह दूर कहीं, ज़िन्दा होती हैं सहर
एहसास में सिमटी हुई
गीली गीली इक सरगोशी
मखमली ख्याल बिखरे हैं चारो तरफ
ख्वाबों के तकिए पर
धीमे धीमे जब इन पर
पङती हैं किसी की पहली नज़र
यूँ लगता हैं जैसे रातभर
आसमां ने बरसाई हैं ज़िन्दगी
काली काली घटाए
दिखाती हैं कुदरत के नज़ारे
और वोह दूर कहीं, ज़िन्दा होती हैं सहर
उजाले के साये में, ज़िन्दा होती हैं सहर ……
नींद के आगोश में
जब रात बसर होती हैं
सितारे लेते रहते जम्हाई
और चाँद करता हैं, नूर की बारिश
उस वक्त इक ख्वाब आता हैं
ज़हन के धुंधलको से परे
हैं जिसका नामोनिशां
जागते हुए अक्सर, वोह महसूस होता हैं
हाँ वहीं ख्वाब, जो बात करता हैं
कभी महकता हैं, कभी बहकता हैं
अलग अलग हैं, मिज़ाज इसके
पोशीदा रहते हैं, जो सब ख्यालों में
इन्हे छूना भी गर चाहूँ तो
फिर से एक ख्वाब बुनना पङता हैं
वोह सारी नज्म़े, जो मेने लिखी हैं
किसी ना किसी ख्वाब की ताबीर हैं
शायद इसीलिए, लफ्ज़ो से खुशबू
हर पल आती रहती हैं
शायराना हैं जिसकी महक
तन्हाई में बसता हैं
ख्वाबों का वोह कारवाँ
रातभर जिसे छूता हूँ, बन्द आँखों से
मेरी खामोशी का हमसफ़र
चाँदनी के साये में
जब रात उतर आती हैं ज़मीं पर
जूगनू से चमकते हैं सय्यारे
और चाँद करता हैं, रेशमी गुज़ारिश
उस पल इक ख्वाब आता हैं
सरगोशी के अक्स से परे, हैं जिसका अपना जहां
जागते हुए अक्सर, वोह महसूस होता हैं
हाँ वहीं ख्वाब, जो साँस लेता हैं
एक शब में, ढेरों रंग बदलता हैं
गुनाहो के समंदर में डूबा हूँ मैं
थाम कर हाथ उबार दो मौला
अन्धेरो में हर घङी गुम हूँ मैं
नूरानी शर्फ़ यूँ फ़राज दो मौला
ख्वाहिशों की चाह में फ़ना हूँ मैं
रूह को सुकूं अता कर दो मौला
वक़्त की चाल से बिखरा हूँ मैं
तकदीर की दरारे भर दो मौला
जिंदगी के सफर में तन्हा हूँ मैं
इश्क़ से अपने नवाज़ दो मौला
दुनिया की चमक में खोया हूँ मैं
साये में अपने पनाह दो मौला
सुकून के दो पल, तलाशती हैं निगाहे
खुशनुमा वोह कल, देखती हैं निगाहे
यादों के जंगल से, जब भी गुज़रता हूँ
बस तेरा ही चेहरा, ढूंढती हैं निगाहे
ख्यालों को लफ्ज़ो में, जब भी उतारा
इक तेरा ही एहसास, छूती हैं निगाहे
ख्वाहिशों ने दिल को, जब यूँ पुकारा
चाँदनी कुछ रातें, माँगती हैं निगाहे
ख्वाबो के शहर में, जब भी ठहरता हूँ
बस तेरा ही पता, पूँछती हैं निगाहे
वक़्त के सफर में, जब तन्हा रहा
बस तेरा ही साथ, चाहती हैं निगाहे
पुरानी डायरी को, जब भी खोलता हूँ
बस तुम पर ही ग़ज़ल, लिखती हैं निगाहे
लफ्ज़ो के धागे बुनकर
यादों की आहट सुनकर
जाने किस राह चला हूँ
मंज़िल ना कोई ना पता हैं
ख्वाबों का जहां भी फ़ना हैं
अनजाने सफर पर अब यूँ
खुद को पाने मैं चला हूँ
वादियों का इक शहर, हो जिस पर रब की महर
तेरा साया यूँ मिले फिर, जैसे सागर से लहर…
बारिश में भीगे हम, और हो धुंधली सहर
तेरा साया यूँ मिले फिर, जैसे सागर से लहर…
चकमता इक सितारा, दूर करता हैं अँधेरे
वैसे ही रोशन किया हैं, अब तुमने मुझे
बहकता हुआ मौसम, करता हैं जो बांवरा
वैसे ही महका दिया हैं, अब तुमने मुझे
चाहत में जलता दिल, करता हैं बेसबर
तेरा साया यूँ मिले फिर, जैसे सागर से लहर…
ख्यालों का वो शहर, ढूँढू जिसे दर बदर
तेरा साया यूँ मिले फिर, जैसे सागर से लहर…
जैसे सागर से लहर, जैसे सागर से लहर….
क्यूँ मैं तुझसे हर दिन, यूँ दूर होता गया
पल पल गुनाहो के, समंदर में डूबता गया
मौला तू ही बता दे, मौला तू ही बता दे…
साज़िशों ने आकर, मुझको यूँ घेरा हैं
ख्वाहिशों में तबाह, तन्हा दिल मेरा हैं
क्यूँ इबादत से हर घडी, मैं दूर होता गया
मौला तू ही बता दे, मौला तू ही बता दे…
गुनाहो से मेरा, दामन भर चुका हैं
फ़ानी ये ज़िस्म, कबका मर चुका हैं
क्यूँ तेरे दर से हर पल, यूँ दूर होता गया
मौला तू ही बता दे, मौला तू ही बता दे….
गुनाहो को, धोने का वोह जरिया हैं
माह-ए-रमज़ान, इबादत का दरिया हैं
शैतान और जहन्नुम, दोनों क़ैद रहते
पूरे तीस दिन, बस रहमत बरसती हैं
रोज़े से रूह को, मिलती है ज़िंदगी
हर बन्दा रोज यहाँ, करता हैं बंदगी
मौला की रज़ा, यूँ अपनी रज़ा बन जाती
ख्वाहिशों की तलब, कहीं नज़र ना आती
बरकतों की बारिश, यूँ जमकर होती हैं
जहन्नुम से आज़ादी, हर पल होती हैं
बेहद मुक़द्दस पाकीज़ा, महीना हैं रमज़ान
ख़ुदा का इन्सान को, तोहफा हैं रमज़ान
तक़वा और परहेज़गारी का, नाम हैं रोज़ा
बुरी चीजों से बचने का, एहकाम हैं रोज़ा
आओ मिलकर इसे करे, हम सब सलाम
माह-ए-रमज़ान हैं बस, जन्नत का पैग़ाम
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To sin, Washing members are the source
Month of Ramadan is the river of worship
Satan and hell are both in prison
Full thirty days, only rain of Mercy
Soul by fasting, gets life
Every person here today, that serve
Master’s pleasure, the pleasure becomes her
Requirements desires, does not appear anywhere
Rain of blessings, are so tightly
Freedom from Hell, are every moment
Most holy purity, the month of Ramadan
Ramadan is the gift of God for human
Of piety and piety, the day of
Avoid bad things, rulings fast
Let’s do it together, we all salute
Month of Ramadan is the message of Heaven
***** RockShayar *****