बिखरे मुक़द्दर के कतरे, दामन में लपेटकर
थमती साँसों कि अर्ज़िया, पलकों पे संजोकर
आया हूँ मैं तेरे दर पर, या गरीब नवाज़
गुनाहो से मेरा दिल, सियाह हो गया है
गुमनाम ज़िन्दगी में, मकसद खो गया है
ढहते हुए वज़ूद को, सहारे कि जरुरत है
इनायत मुझ पर हो, या गरीब नवाज़
शहंशाह-ए-हिन्द के दरबार का, है ये मंज़र
रहमत बरसती है, यूँ बनकर इक समंदर
जो भी आते है यहाँ, बिगड़ी उनकी बनती है
सच्चे दिल से मांगी, हर मन्नत पूरी होती है
ज़िन्दगी के दर्द-ओ-ग़म, यूँ फ़ना हो जाते है
भींगने लगे जब मन, सूफियाना बारिश में
ख्वाज़ा के करम कि, मुझ पर अब हो नवाज़िश
रूह को करार आ जाये, बस इतनी है गुज़ारिश
रूठी तक़दीर के टुकड़े, आँखों में समेटकर
जख्मी दिल कि फरियादें, अश्क़ो से भिगोंकर
आया हूँ मैं तेरे दर पर, या गरीब नवाज़…….