वादियों के जहां में
रहती है वोह
जन्नत से आई
एक हूर लगती है
आवाज़ में तिलिस्म
अंदाज़ में शोखियां
बयां करू तो कैसे
लफ्ज़ भी ना मिलते
जब दीदार होता है
पलकों पर रहता है
हुस्न का इक बादल
कई दफ़ा जिसकी ठंडक
महसूस की है मेने
जब कभी लिखने बैंठा
शब की तन्हाई में
और ख्याल था दिल में
सुरमई उन निगाहो का
ख्वाबो के जहां में
मिलती है वोह
सितारों से आई
मद्धम रौशनी लगती है …..
Month: April 2014
“गर्मी का मौसम”
“हयात के अल्फ़ाज़”

हयात के, कुछ पन्नो पर
ग़र्द जम गई है
धुंधले, नज़र आने लगे
लिखे हुए, सब अल्फ़ाज़
भूल बैठा था, शायद मैं
पढ़कर उसे, बंद करना
खुली किताबो में, अक्सर
धूल, जल्दी बैठ जाती है
सोचा, ढँक दूंगा इन्हे
रेशमी, इक लिहाफ से
मगर, कुछ भी ना मिला
छुपा ले, जो वक़्त के निशां
ज़िन्दगी के, बीते लम्हों पर
बर्फ जम गई है
शफ़्फ़ाक़ से लगने लगे
ठिठुरते हुए, वो एहसास …..
“भानगढ़: मेरी कलम से”
अँधेरी रातों में जहाँ, भटकते है साये
वीरान सब खंडहर, गूंजती हुई सदायें
मौत की स्याही, दीवारो से रिसती हुई
बरसते रहते है, ख़ौफ़ के गहरे बादल
सदियों से यहाँ, प्यासी रूहो का डेरा
शाम ढ़लते, ज़िंदा हो जाता है भानगढ़
उजड़े से झरोखें, चीखते पुकारते रहते
इंतज़ार में किसके, ये कभी नहीं सोते
वो दूर रंगमहल से, आती हुई आवाज़े
अपनी तरफ, बस खींचती चली जाती
जो भी गया, वापस ना लौटकर आया
अनसुलझी इक पहेली, डर का ये घर
अब तक कोई भी नहीं, जान सका है
आखिर रहस्य क्या है, भुतहा शहर का
कोशिश यूँ की, मेने इसपे लिखने की
अल्फ़ाज़ कभी भी, डरते नही किसी से .
“ज़िन्दगी तो है नदी”
हर दर्द सहकर भी, ये ख़ामोश रहती है
ज़िन्दगी तो है नदी, बस यूँही बहती है
कहीं पे उठती लहरें, कहीं डूबते है साये
सीना ताने हुए, ये हालात सब सहती है
कोई जानता नहीं, हाल-ए-दिल इसका
बैठी कब से अधूरी, कुछ भी ना कहती है
ख्वाबों के कच्चे मकां, पलकों पे बने हुए
ढहते है जब कभी, आवाज़ भी ना होती है
इश्क़ में भीगकर भी, जाने क्यूँ तड़पती है
हयात है इक सफर, बस यूँही चलती है .
“खुद से प्यार, कर ले तू”
खुद से प्यार, कर ले तू
बन जा, अपना हमसफ़र
बेखबर, रहता है क्यूँ
तुझपे है, रब की मेहर
वुज़ूद को, पहचान ले तू
जूनून को, तराश दे तू
बेसबर, भटकता है क्यूँ
तुझमें है, उजली सहर
खुद से प्यार, कर ले तू……
बेड़ियों को, खोल दे तू
आज़ाद हो, बोल दे तू
बेक़रार, रहता है क्यूँ
तुझसे है, दुआ में असर
खुद से प्यार, कर ले तू…….
“तज़ुर्बा”
तज़ुर्बा यूँही नहीं, हासिल हो जाता
वक़्त के अलाव में, तपना पड़ता है
आसां नहीं है, लफ्ज़ो की नक़्क़ाशी
ख्यालों की नदी में, डूबना पड़ता है
ख़ामोशी को गर, करना हो बयान
ख्वाबों के शहर में, भटकना पड़ता है
तज़ुर्बा यूँही नहीं, हासिल हो जाता
ज़िंदगी के सफर में, चलना पड़ता है
बैचैनी को गर, करना हो महसूस
इश्क़ की आग में, जलना पड़ता है
बेवजह नहीं बनती, कोई भी कहानी
रूह के अंदाज़ को, लिखना पड़ता है
मर्तबा यूँही नहीं, हासिल हो जाता
दर्द के बाद भी, यूँ मुस्कुराना पड़ता है…
“रहने लगी हो, तुम मुझमें यूँ”
रहने लगी हो, तुम मुझमें यूँ
साँसों में, महकती है खुशबू
जब कभी, पास बैठती हो
दिल चाहे, तुम्हे देखता ही रहूँ
मासूम अदाओ में, एहसास तेरा
हसीन फ़िज़ाओ सा, अंदाज़ तेरा
जब कभी, दूर हो जाती हो
दिल चाहे, राह तकता ही रहूँ
रहने लगी हो…….
हुस्न की बारिश में, भीगता चेहरा
हया के बादलों का, घना है पहरा
जब कभी, बरसने लगती हो
दिल चाहे, बस भीगता ही रहूँ
रहने लगी हो……..
बहने लगी हो, अब मुझमें यूँ
लफ्ज़ो में, धड़कती है आरज़ू
जब कभी, नज़र आती हो
दिल चाहे, तुम्हे जीता ही रहूँ
रहने लगी हो…….
“पिंजरे में, क्यूँ क़ैद है”
पिंजरे में, क्यूँ क़ैद है
उड़ जा रे, होकर आवारा
ख्वाबों का, आसमां बना ले
फैल जा तू, जेसे किनारा
गर्दिशों को, छोड़कर यहाँ
बंदिशों को, तोड़कर यहाँ
उम्मीद की, रोशनी जगा दे
चमक जा यूँ, जेसे सितारा
पिंजरे में, क्यूँ क़ैद है……..
ज़ख्मो को, खरोंचकर यहाँ
दर्द को, दबोचकर यहाँ
इरादो की, बेबसी मिटा रे
बन जा तू, खुद का सहारा
पिंजरे में, क्यूँ क़ैद है………
“खोल रे, मन के किवाड़”
खोल रे, मन के किवाड़
बैठा है क्यूँ, अंधेरों में तू
तोड़ दे, दर्द के पहाड़
पी ले, अब रौशनी को यूँ
लहरो से, तूफ़ान बना दे
रूह में, ईमान सज़ा ले
मिटा दे, गम के उजाड़
छूँ ले, इस ख़ामोशी को यूँ
खोल रे, मन के किवाड़……..
लफ्ज़ो से, जूनून जगा दे
नज़रो में, सुकून बसा ले
जला दे, दुःख के झंझाड़
जी ले, बस ज़िन्दगी को यूँ
खोल रे, मन के किवाड़……..
“तेरी आवाज में, इक जादू”
तेरी आवाज में, इक जादू
अब तक, कायम है
आज फिर, जब मेने सुनी तो
ज़िन्दा हो उठे, एहसास के नज़ारे
रहते थे जो कभी, तेरे मेरे दरमियां
तुम कितनी भी, दूर चली जाओ मुझसे
क्यूँ लगता है, आस पास हो कहीं
शायद वहम हो, ये मेरे दिल का
मगर कुछ यादें, इत्तेफाक़न नही होती
तुम्हे इल्म नही क्यूं, मेरे इस फितूर का
यूँ कह दिया था, तुमने इक दिन मुझसे
वाह, बहुत अच्छा लिखते हो जनाब
तबसे बस गये हो, मेरी हर गज़ल में तुम
इन्तेजार है मुझे, आज भी उस गुज़ारिश का
ज़िन्दा कर दे जो, फिर से मेरे अल्फ़ाजो को….
“मतदान”
“लफ्ज़ो की दुनिया में, पहचान बनाने चला हूँ”

लफ्ज़ो की दुनिया में, पहचान बनाने चला हूँ
रूह की बैचैनी को, अब बयान करने चला हूँ
सुलगते एहसास दबे है, इस दिल में कई
उधेङकर अब उन्हे, यूँ हैरान करने चला हूँ
ख्यालो की तस्वीर, धुन्धली हो गई बहुत
दीदार की चाहत, कुछ आसान करने चला हूँ
गज़ल की ताबीर, शब में होती है अक्सर
नींद की राहत, अब कुर्बान करने चला हूँ
बेवजह इक खलिश, जिन्दगी में है नुमायाँ
दर्द के शहर को, बस वीरान करने चला हूँ
भटकते रहते है यहाँ, गुज़रे दौर के साये
छूकर फिर उन्हे, मैं परेशान करने चला हूँ
गहरे कई ज़ख्म मिले, यादों के सफर में
सींकर अब उनको, यूँ बेज़ान करने चला हूँ
अल्फ़ाजों के जहां में, पहचान बनाने चला हूँ
खोया जो है कहीं, ‘इरफ़ान’ तलाशने चला हूँ
“अम्मी जब फैरती है, सिर पर हाथ”

अम्मी जब फैरती है, सिर पर हाथ
फरिश्ते भी, करते है रश्क मुझसे
अपने नूर को, यूँ फीका समझते
ममता की इस, रोशनी के आगे
बुरे सायो से अब मैं, डरता नही
सदा रहती है साथ, माँ की दुआ
मौला की इनायत, होती है नाजिल
माँ जब सुलाती है, गोद में मुझे
गमो की परछाई, कोसो दूर हो जाये
खुदा की इस, नेअमत के आगे
अम्मी जब चूमती है, माथे पर यूँ
बरसने लगती है, तब रहमत मुझपें
“तू जो हँसे”

तू जो हँसे, सावन बरसने लगे
दिल की बगियाँ में, फूल खिलने लगे
लबो पर ठहरे हुये, इश़्क के सौ फसाने
शोख अदाओ से, लिपटकर यूँ बहने लगे
तू जो खिले, जिन्दगी चहकने लगे
उल्फ़त के ख्वाब भी, फिर सजने लगे
घनी जुल्फ़ो के साये में, छुपा ये चेहरा
गज़ल बनकर अब, मुझसे कुछ कहने लगे
तू जो मिले, जिस्म महकने लगे
चाहत के आगोश में, रूह जलने लगे
“पास बेठो कभी”
“ज़िन्दगी के इम्तिहां”

ज़िन्दगी के इम्तिहां, आसां नहीं यहाँ
वक़्त बेवक़्त कहीं, बस उभर आते है
तक़दीर के फ़साने, हैरत में घुले हुए
आहिस्ता मुझमें, अब उतर आते है
बिखर जाता है दिल, चन्द कतरो में
इन आँखों में जब, बादल नज़र आते है
इश्क़ के दरिया में, नंगे पाँव चलता हूँ
बेरूखी के छाले, झट से पिघल जाते है
रूह के अल्फ़ाज़, आसां नहीं यहाँ
दर्द की स्याही से, अब उभर आते है
“जाने कैसा सुकून है, तेरी इन आँखों में”

जाने कैसा सुकून है, तेरी इन आँखों में
इक बार जो देखूँ, पलके कभी झपकती नहीं
दिल चाहे बस लिखता रहूँ, इनमें डूबकर
ख्वाब सजा लूँ, नूर की बारिश में भीगकर
अनजाने में ही, नज़र कभी टकरा जाये
होश गुमशुदा होकर, नींद मेरी चुरा जाये
जाने कैसा करार है, तेरी इन बातों में
सौ बार जो कहूँ, ज़ुबान कभी अटकती नहीं
मन करे सुनाता ही जाऊ, सुनहरे वो किस्से
शामिल हो जिनमें, हमारी उल्फत के हिस्से
यूँ हो के कभी हम भी, अजनबी शहर में मिले
दिल के आशियाँ में, चाहत के अरमान खिले
सूफियाना एक जूनून है, तेरी इन साँसों में
इक बार जो छूलूँ, धड़कन फिर ठहरती नहीं
“बीमार लोकतंत्र”

झीना चोगा ओढ़े, सच्चाई काँप रही है
झूठ के दावे फैले है, हर तरफ घनघोर
दीमक बनी व्यवस्था, अब खा रही है
सत्य के बीज को, जहाँ देखो उस छोर
कोई नहीं यहाँ, हक़ के लिए जो लड़े
राजपाट के लिए, बस मच रहा शोर
कोई कह रहा, आपके लिए ये करवा देंगे
कोई कहता, आपके शहर को चमका देंगे
उनसे पूँछो, अपने ज़मीर की वो कब सुनेंगे
हम सब आँखे खोले हुए, बस देखते रहते
सबके मन में उठता है, एक ही सवाल
इस मैली राज़नीति को, कौन साफ़ करे
लेकिन अब हमें, खुद के लिए जागना ही होगा
आओ सब मिलकर, आज एक संकल्प करे
बीमार लोकतंत्र को, अपने मत से स्वस्थ करे …..RockShayar
“अब तक बाक़ी है”

वक़्त की करवट ने, हालात बदल दिए
कुछ सलवटें मगर, अब तक बाक़ी है
बनते बिखरते, अल्फ़ाज़ यूँ हर पल
जैसे कांच के बर्तन, चटक रहे कहीं
हाथों में समेटने लगू, चुभ जाते है
लहू से मिलकर, इनको मिलता सुकूं
रूह की कैफ़ियत ने, अंदाज़ बदल दिए
कुछ अदावते मगर, अब तक बाक़ी है
छुपा लो कितना भी, ना छुपता है ये
राज़ जाने कैसा, इस ज़िन्दगी का
जलते बुझते, ज़ज्बात यूँ हर लम्हा
जैसे मिटटी के दिये, रोशन है कहीं
दर्द की आहट ने, दिन रात बदल दिए
कुछ मुहब्बतें मगर, अब तक बाक़ी है….
“बेवजह नही है”

अपने अंदर की आग को पहचान ले
बेवजह नही है, तुझमें भङकते शोले
कुछ तो जरूर है, अनदेखा अनछुवा
अब तक रहा है, तू जिससे अनजान
वुजूद पुकार रहा, इसकी भी सुन ले
बेवजह नही है, तुझमें बिखरते तारे
सच्चाई जरूर रख, पर समझोता ना कर
अपनी आजादी से, कभी भी यहां
पानी तू बन जा, रास्ते खुद बना ले
बेवजह नही है, तुझमें उफनते धारे
धधकती रूह की लौ को हवा दे
बेशुमार अब है, तुझमें भङकते शोले…
“रसोईघर”

रसोईघर से जब आती है खुशबू
पङोसी भी जग जाते है नींद से
मसालो की सुगन्ध, भूख बढा देती
माँ के हाथ का स्वाद, और कहां है
चन्दा जैसी गोल, शहद सी नरम
चपाती कहो या रोटी, दोनो में है दम
जो घर से दूर रहते, पूंछो उनसे तुम
ऐसा जायका, और कहीं मिलता है क्यां
तङके वाली दाल, या हो शाही पनीर
नज़र आये थाली में, मन हो जाता अधीर
धीमी धीमी आँच पर, पकता जब खाना
पेट में दौङते चूहे भी, बन जाते है शेर
रसोईघर से जब आती है महक
ख्वाब भी टूट जाते है झट से
“दुनिया”

झूठे दिखावो पर, टिकी हुई दुनिया
बनावट के पुलिन्दे, रिवाजो के ढर्रे
सङियल परम्परा, घिसी पिटी रस्मे
बस ढोये जा रहे, खोखले कायदे
सच की यहां पर, कोई कीमत नही
मर्जी से जीना यहां, गुनाह बहुत बङा
आजाद हूँ, ये कभी लगता ही नही
सब के सब, बस भागे जा रहे है
अंधी दौङ में, इक दूजे को देखकर
किसी को पता नही, आखिर जाना कहां है
दम घुटता है बहुत, इस जहां में मेरा
खुदाया बख्श दे, अब मुझे मेरा जहान
“चेहरों के जंगल में”
चेहरों के जंगल में, कबसे भटक रहा हूँ
यहाँ कोई भी अब, मुझमें मिलता नहीं
जिधर भी जाऊ, बस हैरानियों के मंज़र
पूंछते रहते हर पल, मुझसे पहचान मेरी
कभी कभी जब, बहुत उदास हो जाता हूँ
खामोश बैठी, चुपचाप देखती है परछाई
इस गुमान में, शायद मैं कुछ कहूँ उससे
मगर अफ़सोस, मैं कुछ भी कहता नहीं
रात भर सिसकती रहती, तन्हा रूह मेरी
किसका इंतज़ार, सदियों से ये कर रही है
एहसास के दरिया में, कबसे छलक रहा हूँ
यहाँ कोई भी अब, मुझमें डूबता नहीं ….
“इरादों में खनक”
इरादों में खनक, कुछ ऐसी हो तेरी
ज़र्रा भी कहें तो, पूरा आसमां सुने
खामोशीयों के अक्स, तुझमें छुपे बेठे है
लफ्ज़ो के ज़लाल से, इन्हे तू फ़ना कर दे
रूह कि पुकार, क्यूं मगर सुनता नही
इसमें ही कैद है, जिन्दगी के सब राज़
हौंसलों में दमक, कुछ ऐसी हो तेरी
चुप भी रहे तो, सारा जमाना देखे
कमज़ोर सदां को, दबा दिया जाता है
दस्तूर दुनिया का, ये काफी पुराना है
निराशा के साये, चारो तरफ फैले हुए
हिम्मत के अँगारो से, इन्हे तू धुआं कर दे
कोशिशों में चमक, कुछ ऐसी हो तेरी
रेज़ा भी बहें तो, पूरी कायनात खिले
“एक ख़्वाब ताबीर करे”
चलो आज फिर एक, ख़्वाब ताबीर करे
वादियों का शहर हो, अज़नबी राहें लिए
पता ना चले जहाँ, कि जाना किधर है
अनजान रास्तों पे, बस चलते चले जाए
पलकों के आशियाने में, धीरे से सजाये
इश्क़ के फ़साने, यूँ बेनज़ीर अंदाज़ लिए
रूह के इस जूनून को, देखो कभी गौर से
इक़बाल-ए-ज़ुर्म भी है, इज़हार-ए-मुहब्बत भी है
इक अजब सुकून है, ख्यालो के जहाँ में
आओं कुछ देर बैठे, बस हाथों में हाथ लिए
चलो आज फिर एक, एहसास ज़िंदा करे
हयात का सफर हो, अनकही गुज़ारिश लिए
“साहिल पर खड़ा हूँ”
साहिल पर खड़ा हूँ, बहुत देर से मैं
ना कोई लहर आई, ना कोई तूफ़ान आया
बस चमकती हुई रेत है, चारो तरफ
मासूम बच्चे, जिस पर घर बना रहे है
सोचा मैं भी, जरा हाथ आज़मा लू
कच्ची बुनियाद पर, पक्के ख्वाब सजा लू
तेज हवा के झोंके से, पल में यूं बिखर गया
वो कच्चा घरोंदा, शिद्दत से जिसे था बनाया
ज़िन्दगी अब कुछ, वेसे ही लग रही
जितना पीछे भागो, उतना ये तरसाये
रेत के उस घर जैसी, इसकी है मिसाल
वक़्त के थपेड़ो से, जो बिखरता जा रहा है
इस मोड़ पर खड़ा हूँ, बहुत देर से मैं
ना तेरी खबर आई, ना कोई पैग़ाम आया
साहिल पर खड़ा हूँ, बहुत देर से मैं
ना कोई लहर आई, ना कोई तूफ़ान आया
“ज़िन्दगी”
ज़िन्दगी तुझपें मेरा, अब इख़्तियार ना रहा
मैं मनाता ही रहा, तू रूठती चली गई
वक़्त के ये धारे, अब धुंधले होने लगे
एहसास कि नदी में, रेत से जमने लगे
मुसाफिर कई मिले, अनजान सफ़र में
हसरतो के आशियाँ, आँखों में लिए हुए
ऐतबार करना मगर, बहुत मुश्किल यहाँ
जख्मी दिल अक्सर, सहमा सा रहता है
ज़िन्दगी मुझकों तेरा, बस इन्तेज़ार ही रहा
मैं पास आता रहा, तू दूर होती चली गई
छुप कर बेठी है, तू गर्दिशो में कहीं
कभी तो झांक इधर, मैं तन्हा खड़ा हूँ
सुना है कई रंगो से, मिलकर तू बनी है
मुझे भी दिखा कभी, सुनहरे तेरे सपने
ज़िन्दगी तुझपें मेरा, अब इख़्तियार ना रहा
मैं लिखता ही रहा, तू मिटाती चली गई
“इक खामोश गुज़ारिश”
“बर्फीले पहाड़”
चुभती है बहुत, सूरज कि तपिश
बर्फिले, इन पहाङो को
पिघलती चाँदी से, नहाये हुये
लगते है, ये सब
खामोश बेठे है यहाँ
वादियों का शहर, बसाये हुए
हर रोज यहाँ, नये चेहरे आते है
बर्फीली गोद में, फिसलते हुए
इनकी तन्हाई मिटाते है
यहाँ पेङ कम नजर आते है
वो भी, शायद डरते है
पिघलते हुये, इनके वुज़ूद से
इन्सानी ख्वाहिशें, रफ्ता रफ्ता
कुदरत को, यूँ बदल रही है
ये सर्द नज़ारे, सहमे हुये से
धूप तो अब, सह लेते है
घबराते है मगर
इन्सां के, खौलते जूनून से
खामोश बेठे है बस
वादियों का शहर, बसाये हुए….
“मुस्कानों के चोगे में”
मुस्कानों के चोगे में, दर्द छुपा लेता हूँ
लफ्ज़ो में असर, फिर भी आ ही जाता है
बहुत कोशिश कि, खुश रहने कि यहाँ
आँखों में नज़र, फिर भी आ ही जाता है
दुनिया के रिवाज़, दिखावे पर मेहरबां
खोखली बुनियाद लिए, बस पल रहे है
आज़ाद ख्यालो कि, परवाह अब किसे
इन्हे जकड़ने कि, सब साज़िश कर रहे
दम घुटने लगता है, ये अँधेरा जब बढे
रौशनी कि पुकार, मद्धम हो बुझ रही है
गुजरे लम्हो को, यूं दफ्न करने लगा हूँ
इक ख्याल इधर, फिर भी बच ही जाता है
शब्दो के धागो में, अश्क़ पिरो लेता हूँ
पलकों पर नज़र, फिर भी आ ही जाता है
“चाँद”
“एहसास कि नदी”
“मेरा किरदार”
अहले कलम होने लगा है, अब मेरा किरदार
लफ्ज़ भी है यूँ कुशादा, जेसे हो इक कोहसार
सीने में जो कैद थे, लम्हे बाहर आने लगे है
कागज़ के मैदान पे, अब जो होने लगे सवार
सूफियाना तासीर है, ख्यालो के पैमानें कि
ख्वाबों के जहां पे, मुझको होने लगे ऐतबार
बंदिश कोई नही है, ख्वाहिशों कि उड़ान में
आवारापन कि यहाँ, अब होने लगी दरकार
ज़ज्बातो से मुतास्सिर, कलम मेरी हो रही
कैफ़ियत यूँ इसमें बसी, जेसे इश्कियां खुमार
“ज़िन्दगी पिघलती जा रही है”
ज़िन्दगी पिघलती जा रही, बर्फ कि तरह
आओ इस पर, खुशियों कि चाशनी छिड़क दे
कुछ खून ही बढ़ जायेगा, जरा मुस्कुराने से
चलो इसके इशारों पे, आज हम सब थिरक दे
चहकते हुए कई लम्हे, उड़ते फिरते है यहाँ
पकड़ो जो इनको तो, रूह को फिर यूं महका दे
ढेरो हैरानियाँ रहती है, ज़िन्दगी के दामन में
देखो इन्हे गौर से, जीवन के सब राज़ खोल दे
ज़िन्दगी पिघलती जा रही, बर्फ कि तरह
आओ इस पर, मुहब्बत का नमक छिड़क दे
“कभी कभी जब मैं, लिखने बेठता हूँ”
कभी कभी जब मैं, लिखने बेठता हूँ
दिल के दरियां में, तूफ़ान सा उठ जाता है
लफ्ज़ो कि पतवार से, जरा आगे बढता हूँ
कश्ती है कागज़ कि, ख्याल उभर आता है
आहिस्ता से बनती, नज़्म कि शक्ल यहाँ
निगाहो से जो पढे, अदब वो सीख जाता है
अलहदा अन्दाज, शब्दो का पहनाया लिबास
खोया जो अन्धेरों में, फिर रोशन हो जाता है
छलकते ज़ज़्बातो को, जो कहने कि कोशिश करू
हसरतो के जहां में, उफनता सैलाब आ जाता है
चेहरे कई मिले मुझको, अनजान सफर में यहाँ
तू मगर जब भी मिलता, रूह को भिगों जाता है
कभी कभी जब मैं, लिखने बैठता हूँ
अल्फ़ाज़ो में नुमाया, वुज़ूद मेरा हो जाता है