जाने कब से, छुप कर बेठा
मुझमें, ये अक्स मेरा
हैरानी से, यूँ मुझे घूरता है
शायद, कहना चाह रहा
सबकी खबर, तू रखता है
फिर मुझसें, क्यूं है बेखबर
हर पल, तुझसे मिलना चाहूं
मगर तुझे, फुरसत कहां है
कभी आओ, वक्त निकालकर
बेठेंगे हम, दरिया किनारे
गुफ्तगू से, कुछ बात बने
पता तो चले, आखिर वजह क्या है
रूह की, अक्स से बेरूखी की
बहुत परेशां, जो करती है
अक्ल के परदों में, ना कोई जवाब
अधूरे से है, आज भी कई सवाल
लफ़्ज ना होते तो, केसे मैं कह पाता
एक अरसे से है अजनबी
मुझसे, ये अक्स मेरा…