पिन्जरे में कैद किसी परिन्दे सा
नादाँ ये दिल फङफङाता रहता
सख्त दिवारो से टकराता हुआ
पंख वो अपने फिर खोता हुआ
आखिर में टूट जाता है
उङने कि हर कोशिश नाकाम
बुझती आँखो में इक उम्मीद है
शायद कोई मददगार आयेगा
आज़ादी कि शिफ़ाअत करने
मगर अफसोस यहां कोई नही
शिरकत कर सके जो तन्हाई में
खलाओ में छुपी हुई है बैचैनी
ज़िस्म के हिजाब से ढकी हुई
फ़ना हो रही पल पल जिन्दगी
सियाह दर्द के उस तसव्वुर में
तक़दीर की पेशकश अजीब है
रूह की जुम्बिश भी हैरान यूँ
किस मोङ पर आकर ठहरी
हर तरफ बस बरस रहे है
खौफ़ के काले बादल यहाँ
भीगते मन में इक उम्मीद है
शायद कोई रहबर आयेगा
सफर को अब आसान करने