“शबनम कि बूंदे” सहर में चमक उठी, रात भर टपकती रहीशबनम कि कुछ बूंदे, ज़मींन पर ठहरी हुई इक अनजान उल्फत में, वुजूद यूं खोती हुईरफ्ता रफ्ता पिघल कर, आहें बस भरती रही केसी ये मुहब्बत है, कोई भी ना समझ पायाखुद को मिटा कर, आशिक को संवारती रही Share this:TwitterFacebookLike this:Like Loading... Related