चट्टानों के बगीचे में
इक बहार मिली थी मुझे
वीरान जज़ीरे सा ये दिल
फिर से धड़कने लगा
कई अर्से से चुप सा बेठा
तन्हा दिल बात करने लगा
कभी आँखों से, कभी होंठो से, कभी लफ्ज़ो से
अंदर छुपे ज़ज्बात जाहिर करने लगा है
मगर थोडा डरता भी है
बीते हुए उस मंज़र का खौफ
अब तक सुर्ख दीवारो पर लिपटा है
लहू कि सोहबत में लाल भी हो चुका
पर कभी कभी वो स्याह रंगत
फिर से आ जाती है
नादाँ दिल कि ये बेबसी
उसको दूर से बस देखना है
नज़दीक जाने से हिचकिचाता
कुछ जख्मो के निशान
अभी भी कायम है दिल पर
शायद इसीलिए आज मैं
उस खुशबू को महसूस करता हुआ
अल्फ़ाज़ों के दरमियाँ यूँ खो रहा हूँ
जेसे उस दिन खो रहा था
चट्टानों के बगीचे में
जब इक बहार मिली थी मुझे
Month: January 2014
“अब जाकर दीदार हुआ”
“सिमटी हुई तेरी पलकें”
सिमटी हुई तेरी पलकें
कुछ कह रही है मुझसे
आहिस्ता से यूँ दबे पांव
हौले हौले दिल के आशियाँ में
अपना असर छोड़ती हुई
जब भी ये उठती है
मेरी नींद साथ में चल देती
ख्वाबो के जहाँ में दोनों ही
बस चलती जा रही
शायद किसी मोड़ पर मिले तुझसे
हसरत के इक जहाँ में
सही गलत के पार
जब कभी ये पलके भारी हुई
तेरे अकस को मेने पाया इन पर
अश्क़ो से भीगकर वही ठहर गया है
इसका तो रंग भी कबका उड़ चुका
अब तो बस ख़ुशबू सी तैर रही
इन पलकों के शामियाने में
मेने कई लफ्ज़ो के ताने बुने
रेशमी उस एहसास से भरे हुए
जो पहली नज़र में रहता है
भीगी हुई तेरी पलके
कुछ कह रही है मुझसे
इन्हे शायद अभी हुआ है यकीं
मेरी भी पलके आज नम है
” देखो ना यूँ “
” जूनून इक मिला है “
जूनून इक मिला है, अँधेरी उस गर्दिश के बाद
नूर अब खिला है, बुझती हुई ख्वाहिश के बाद
कितने ख्वाब बिखरे, तब जाकर हुआ यकीं
हीरा भी बनता है, पत्थर पर घिसने के बाद
गर तूफ़ान ना आते, तैरना केसे तू सीखता
लहरो के टकराव से, निपटना केसे सीखता
वुजूद अब जगा है, मिटती साज़िश के बाद
खुश्बू सा महक रहा, बनके रूहानी एहसास
समय तो चक्र है, धीरे धीरे ये गुजर जायेगा
क्या खोया, क्या पाया, सब यही रह जायेगा
सिर्फ आज तेरे पास है, मुट्ठी में दबोच ले इसे
मौत का जहाँ है, ढलती हुई ज़िन्दगी के बाद
जूनून इक मिला है, अँधेरी उस गर्दिश के बाद
नूर अब खिला है, बुझती हुई ख्वाहिश के बाद
” मेरी तन्हाई “
कोई भी ना समझ पाया अब तक मेरी तन्हाई को
महफ़िल में ये मुस्कुराती, रातभर रूह को जलाती
जाने किस मिटटी का बना है, बेवक़ूफ़ ये दिल मेरा
जब भी इसको मना किया, याद बस तुमको किया
बहुत याद आता है, गुजरा हुआ वोह एक एक पल
नज़रो से नज़रे मिलाना, इशारो में रूठना मनाना
ऐसा भी क्या जादू किया, तेरी इक मासूम अदा ने
कभी पागल, कभी दीवाना, कभी शायर कहती रही
शिद्दत से मैं करता ही रहा, उस चाहत की इबादत
पर क्यूँ तुम जान ना पायी, टूटे दिल की गहराई को
कितने ख्वाब यूँ बिखर गए, मुहब्बत की लहरो से
कच्चे मकान सब ढहते गए, उल्फत की बारिश में
आवारा सी ये फितरत, जाने क्यूँ इतना सताती है
हर लम्हा यूँ तड़पाती है, पल पल मुझे रुलाती है
हौंसला फिर भी ना कम हुआ, हर दिन बढ़ता गया
अब तो आदत सी हुई है, दर्द में यहाँ मुस्कुराने की
” ना हो मायूस तू “
” इश्क़ में डूबी शाम “
लबों पर वो तेरा नाम आज भी है
इश्क़ में डूबी ये शाम आज भी है
अब भुला भी दो हमें तो ग़म नहीं
इस रूह पर तेरे निशान आज भी है
कहता है जिसको मुहब्बत ज़माना
देखा जब तुम्हे हो गया मैं दीवाना
अब भी तुम चाहे मानो या ना मानो
मेरी सांसो में तेरा शुमार आज भी है
इश्क़ का इम्तिहां नहीं होता है आसां
डूबकर इसमें कोई भी ना बच सका
फासले इतने कि कुछ नहीं दरमियाँ
आँखों में मगर तेरा चेहरा आज भी है
ऐसी भी क्या बेरुखी जो दिल में बसायी
हसरत भी है मगर यूँ पलकों से छुपायी
लफ्ज़ो से कर रहा है गुज़ारिश ‘इरफ़ान’
मेरे तखल्लुस में वो तेरा नाम आज भी है
” शहादत को सलाम “
इक लौ जलायी थी उन्होंने, मशाल उसे हम बनाये
वतन कि मुहब्बत के तराने, चलो आज गुनगुनाये
मुल्क कि ख़ातिर लड़े वो, अपनी आखिरी सांस तक
ऐसी अज़ीम रूहो पर, चलो मिलकर अभिमान करे
रहते वो अपनों से दूर, ताकि हम रह सके महफूज़
उनके शौर्य बलिदान पर, आओ हम सर को झुकाये
लहू में रवां था जिनके सदा, देश कि रक्षा का वचन
अमर जवान शहीदों को, आज करे शत शत नमन
घर से वो कह कर चले थे, फ़तेह कर वापस आयेंगे
हँसते हँसते जां लुटा दी, कुछ ऐसा था उनका जूनून
आज मुल्क के हालात देखकर, कितने ग़मगीन होंगे
हर वक़्त सोचते होंगे, क्या ये हमारा वोही वतन है
कुछ तो जरा हम गौर करे, अपने भारत महान पर
बदलाव लायेंगे खुद में, चलो मिलकर खाये कसम
आज राष्ट्रीय पर्व है हमारा, हर रोज ये आता नहीं
इसी दिन मिली थी हमें, उन्मुक्त सोच कि आज़ादी
लिखना तो बहुत चाहूं, कलम मेरी कमज़ोर अभी है
शहादत के फ़साने लिखकर, क़ुव्वत नई अब आ गई
गणतंत्र दिवस के अवसर पर, शहीदों को याद करे
व्यर्थ ना होने देंगे शहादत, चलो आज ये प्रण करे
” ख़ौफ़ “
इक गहरा सन्नाटा सा छाया है रात में
ख़ौफ़ कि दिवार से जुड़ा हुआ
तन्हा सी स्याह ये रात
कई दफा मुझे डराती रही
अनदेखे से अजनबी वो साये
मुझे पकड़ने को दौड़ते है
और मैं पसीने से लथपथ
भीगा हुआ, घबराया हुआ
आँखें यूँ झट से खोलकर
ख्वाब से बेदार हो गया
वो दहशतज़दा ख़ौफ़
आज भी कायम है मुझमें
पहले तो माँ से लिपट जाता था
जब भी ख़ौफ़ तारी होता
मगर अब मैं अकेला हूँ
जाने कोनसा वो कन्धा है
जिसे तलाशता रहा हूँ रातो में
पानी से क्यूँ ख़ौफ़ है इतना मुझे
तैरना इसमें कभी नहीं आया
बचपन में इक बार डूबने से बचा था
उस वक़्त से ही ख़ौफ़ ठहर गया है
सीने में जमा ये बर्फ कि तरह
जो अब पिघलती नहीं
शायद ख़ौफ़ कि दीवारे फौलादी है
अजीब सी ख़ामोशी है इसमें
जो मुझे औरो से ज़ुदा करती रही
हर घडी मैं इससे लड़ता रहा
जाने क्यूँ कभी थकता नहीं हूँ
उस बर्फीली पहाड़ी पे चढ़ा
तो खुरदुरी चट्टानें मिली
काली काली भूरी मटमैली सी
बर्फ से मगर ढकी हुयी थी
छोटी पर पहुँच कर यूँ नीचे देखा
गहरी वादियों में फिर से ख़ौफ़ नविश्ता
रूह से ऐसे लिपट गया है
जेसे ज़मीन से जुडी है मिटटी
कभी कभी तो लफ्ज़ भी शिकार हो जाते
ख़ौफ़ के इस मंज़र का
बंदिश में दम तोड़ते जाते
गुनाहो से स्याह है कल्ब कि क़ैफ़ियत
आज़ाद कर दे मुझे खुदाया
ख़ौफ़ कि इन दर्दनाक बेड़ियों से
” दर्द “
सीने में आज इक दर्द उठा है
जाने कितने दिनों से छुपा रखा मेने
इस बार तो उफ़न कर आया
और भिगो गया ये पलके
मेने कोशिश भी बहुत कि
इसे दफ्न कर दू
मगर जितना इसे दबाया
उतना ही उभर कर आया
हद से ज्यादा अब बढ़ने लगा
कोई नहीं यहाँ जो पूछे मुझसे
कि क्या मामला है तेरा
ऐसा क्या लिखा तक़दीर में
इतने रास्तें तो पार कर लिए
फिर भी मंज़िल ना मिल सकी
शायद वो करीब ही है
इसीलिए इतना तड़पा रही
दिन तो जेसे तेसे गुजर जाता है
मगर रात जेसे ही आती
तन्हा दिल घबराने लगता
यूँ दहकता है
जेसे आग जल रही हो
जिस्म तो कबका बेजान हो चुका
रूह मगर हर रोज जल रही
किसके इंतज़ार में ये राख बनी
जिस पर था इसे यकीन
वो तो कबका छोड़ गया इसे
फिर भी उसकी याद में
अश्क़ रवां हो जाते है क्यूँ
दर्द कि ज़ुबां बनकर
चले आते है ख्वाबो के जहाँ में
आँखों पर मेने लिखे थे
अल्फ़ाज़ों के कई फ़साने
पलकों के पर्दो में शायरी छुपी रहती
सीने में फिर कोई दर्द उठा है
मगर अब मैं उसे छुपाता नहीं
बल्कि ज़ाहिर करता हूँ ग़ज़ल से
क्यूँकि मेरा वुज़ूद अल्फाज़ो में नुमायाँ है
“बीते हुए लम्हो कि कसक”
बीते हुए लम्हो कि कसक, साथ तो होगी
ख्वाबो ही में हो चाहे, मुलाकात तो होगी
तस्वीर इक छपी है, धुंधली आँखों में कही
अनसुनी गुज़ारिश, यूँ उलझी है सांसो में
हसीं यादों को अब, लफ्ज़ो में सजाने लगा
पलको के ज़रिये, उतरता रहा हूँ रूह में
उस खामोश बेरुखी में, कुछ बात तो होगी
दूर रहकर भी हर पल, मेरे पास तो होगी
बीते हुए लम्हो कि कसक, साथ तो होगी
ख्वाबो ही में हो चाहे, मुलाकात तो होगी
मैं जाऊ अब कही भी, साथ वो हरदम यही
कोशिश कि है बहुत, पर मिटता अकस नहीं
कुछ भी ना था दरमियाँ, फिर क्यूँ ये बैचैनी
सब उजला है यहाँ, फिर भी आँखों में हैरानी
नाम हमारा सुनकर, चेहरे पे चमक तो होगी
ज़िक्र उनका होते ही, लबो पे हरकत तो होगी
गुजरे इक हसीं दौर कि महक, साथ तो होगी
अल्फाज़ो ही में हो चाहे, कुछ बात तो होगी
बीते हुए लम्हो कि कसक, साथ तो होगी
ख्वाबो ही में हो चाहे, मुलाकात तो होगी
“ज़िन्दगी”
ज़िन्दगी यूँही ढल रही, वक़्त के निज़ाम पर
ये पल नहीं मिलेगा, फिर किसी मक़ाम पर
भूलकर शिकवे गिले, ख़ुशी को अब गले लगा
उड़ने लगे सब दर्द तेरे, बनके धूल मैदान पर
ख्वाहिशों का ये समंदर, आगे बढ़ता ही रहा
पीछे क्या छूट गया, खुद से बस तू बेखबर
दुनिया के बारे में, सब कुछ है मालूम तुझे
अपने दिल कि कैफियत, क्यूँ नहीं जानता
हर कदम पर यहाँ मिले, हैरानियों के मंज़र
खुद पर जो है यक़ीं, कदमो में फिर हर नज़र
लफ्ज़ भी अब ढल रहे, शायरी के अहकाम पर
इक ख्याल को सच माना, मुहब्बत के नाम पर
ज़िन्दगी यूँही ढल रही, वक़्त के निज़ाम पर
ये पल नहीं मिलेगा, फिर किसी मक़ाम पर
“खुदी से मेने इश्क़ किया”
“आज फिर मैं सो नहीं पाया हूँ”
आज फिर मैं सो नहीं पाया हूँ
तुम्हारी वो इक तस्वीर मिली है
पुरानी अलमारी के दराज में रखी
छुपाया था जिसे कभी मेने किताब में
इस डर से कि कोई देख ना ले
या खुद देख कर याद में ना रोने लगू
रुखसती के वक़्त वादा किया था मेने
नहीं बिखरुंगा अब कभी तेरे ख्याल से
मगर ज्योंही कागज़ पर साया नज़र आया
वादा यूँ टूट गया जेसे कोई बिखरा कांच
बहुत कोशिश कि है मेने
सख्त दिल बनने कि यहाँ
मगर ना जाने क्यूँ फितरत बदलती नहीं
बस तुझे ही बेइंतेहा चाहती रही है
कई दफा तेरे नाम को भी
अपने नाम से जोड़ता रहता हूँ मैं
अपने तख़ल्लुस में भी तेरा शुमार कर लिया
मगर हयात में तू फिर साथ क्यूँ नहीं है
शब् में गहरा सन्नाटा रहने लगा
मेरी तरह ये भी तन्हाई में जल रही
शायद इसे वो नूर याद आ गया
जिसके लिए मैं कभी यूँ दीवाना था
जेसे बरसते मौसम का आवारा बादल
जब भी तुम मेरे आसपास होती थी
बारिश शुरू होने लग जाती
इशारा था वोह कायनात का
मैं जिसे बखूबी समझ जाता
मगर तुम बहुत डरती थी
भीगने से नहीं, इश्क़ में डूबने से
अश्क़ यूँ रुख को नम कर रहे है
जेसे बारिश में छत से रिसता है पानी
बहुत रोया मैं उन तन्हा रातो में
जब तुम कही दूर चली गयी थी
और मुझे जरुरत थी हमसफ़र कि
हर नक्श में मेने तेरा चेहरा तलाशा
आज तक भी क्यूँ मुझे यकीं ना हो पाया
कि तुम तो जा चुके हो कब के दूर
मगर यह दिल अब भी कहता है
वोह गुज़ारिश मेरी कभी तो पूरी होगी
आज फिर मैं सो नहीं पाया हूँ
शायद तेरी तस्वीर रूह में बसी है !!
“मुफ़लिसी”
“मौसम”
मौसम का मिज़ाज़, फिर से आज सर्द हुआ
फ़िज़ा को भिगो रहा, इक काला बादल नया
सुबह जब उठे हम, कुछ बूँदे गिरती देखी
छत से टपकती हुई, ज़मीं से जा मिली जो
ठण्ड बहुत है, फिर भी ये साँसे गर्म सी है
लफ्ज़ निकलते ही, भाप बनकर उड़ जाते
ऐसे मौसम में, बस अदरक वाली चाय हो
साथ में वो हमसफ़र, पास मेरे बेठा हो
हाथो में हाथ लिए, रेशमी एहसास जियें
छुपा ना सकू जिसे, नज़रो के लिहाफ से
कई कबूतर बेठे है, इन ताको में दुबक कर
इंतज़ार में, बूँदे रुके तो दाना खोजने चले
कुछ शराती बच्चे, इन्हे परेशान करते है
मगर इन सबसे ज़ुदा, पेड़ो कि पत्तिया
खुश है बहुत, धूल से आज़ादी जो मिली
बहुत याद आ रही है, आज मुझे अम्मी
हाथ के बने वो पराँठे, कही नहीं मिलते है
सर्दी के मौसम से, नहाने का बैर पुराना है
कुछ हिम्मत कर जाते, कुछ पानी बचाते
डर तो खुद में बसा, मौसम को कोसते रहते
धूल से सनी सड़क पे, जब पानी गिरता है
कीचड़ कि शक्ल में, गुबार कि ये भड़ास है
हमारे यहाँ तो, सड़को पर बेशुमार गड्ढे है
जहा बारिश गिरे, वही तालाब बन जाता है
हसरतो का सैलाब, आज उफन कर आया
ज़िस्म को तर करके, रूह को भिगो रहा
मौसम का मिज़ाज़, फिर से आज सर्द हुआ
फ़िज़ा को भिगो रहा, इक काला बादल नया
“कोहरा”
जेसे कभी तुम, ज़ुल्फो से भिगोया करती थी
सर्द सुबह में रवां, धुंध में लिपटा ये रहता है
जिस्म को चीरता हुआ, रूह तक जा पहुँचा
कांपते लरजते हुए होंठ, बस थरथरा रहे है
पिघली वो रात, ओंस बनकर टपकती रही
कुछ शफ्फाक़ सी अदाए, यूँ बिखरती रही
मगर इस कोहरे ने, उसे भी अब ढक दिया
जेसे तू कभी, मुझको आँचल से ढक देती थी
महक संदली सी, ख्वाबो में अब रहती है
जब से सर्दी आयी है, सुबह इसमें यूँ घुली
जेसे कोई मदहोश अदा, पलकों से तेरी जुड़ी
घना ये कोहरा, मुझमें अब यूँ उतर आता है
जेसे कभी तुम, आँखों में समाया करती थी
“हैरान””
” मैं तुम्हें ना चाहू “
” वोह लम्हें “
हर घड़ी याद आते है, बीते हुये वोह लम्हें
कुछ गुज़री यादें, तलाश रहा जिनमें तुम्हें
सुरमई दो आँखें, सुनाती मीर कि ग़ज़ल
लब पर सजे थे, बेशुमार दिलक़श तराने
क्यूँ नैनो से अब, खामोश नदी बहने लगी
उफ़नती लहरे जिसकी, रुख़ को भिगो रही
ख्वाब देखे थे कई, पलकों से छुपकर हमने
शब् में जिनके निशान, आज तक कायम है
रात भर अब ये आँखें, अधजगी सी रहती है
शायद यकीं है इन्हे, ख्वाब में बस दीदार का
क्यूँ करता हूँ तुमसे, मैं इतनी मुहब्बत यहाँ
इस सवाल का जवाब, अब तक मिला नहीं
गर जवाब है, बता देना चुपके से ख्वाब में
अगर ना हो तो भी, यूँही मिलने चले आना
बहुत दिन हो गये है, नाम से नाम जोड़े हुये
हयात में ना सही, लफ्ज़ो में तो हक़ दो मुझे
जब तुमसे मिला, इक दौर से गुजर रहा था
थामा जब यूँही कहीं, तुमने बस हाथ मेरा
आज तक वो दिन, सबसे प्यारा है लगता
मन मेरा ज़िद्दी बंजारा, आज भी वही ठहरा
सिफत यूँ आवारा, जेसे कोई जलता सहरा
कोई शैदाई, कोई दीवाना, कोई शायर कहता
इस दिल का हाल, मगर कोई नहीं समझता
मेरे ज़िस्म में, रूह में, लफ्ज़ में, अकस में
दिल के हर हिस्से में, उल्फ़तों के किस्से में
जज्बातों के एहसास में, तू आज भी रहती है
क्यूँ इतना सताते है, सुनहरे से हसीं वक्फ़े
उम्दा महकती यादें, पा रहा तुमको जिनमें
हर घड़ी याद आते है, बीते हुये वोह लम्हें
कुछ गुज़री यादें, तलाश रहा जिनमें तुम्हें
“नादान”
“नवाज़िश”
“इज़हार”
मालूम भी ना हो सका, दिल में कब तू उतर गया
इश्क़ सूफियाना जब हुआ, पलकों पर नज़र आया
धड़कने वाकिफ ऐसे, जानती हो सदियो से जेसे
इंतज़ार में ये अब तक, बस यूँही धड़क रही थी
कुछ बेखबर सी रही, वक़्त कि उन सलवटो से
जिनके अधूरे निशान, चाहकर भी मिटते नहीं
सोहबत मखमली सी, करती बेक़रार दिल को
हसरत अनकही, ना जुदा हो मुझसे तुम कभी
कितनी शिद्दत से, मेरी आशिक़ी तुम बन गये
ख्वाबो में तलाशा है, अल्फाज़ो में अब बस गये
कह ना सका जो कभी, शायरी में बयां कर दिया
इजहार मेने ना किया, तू जाने कहा चला गया
याद हुई है बस धुँआ, ख्यालो से कुछ पिघल रहा
रफ्ता रफ्ता ही सही, ख्वाब फिर से मैं बुन रहा
एहसास भी ये ना हुआ, रूह में कब तू उतर गया
इस मुहब्बत ने जब छुआ, चेहरे पर संवर आया
मालूम भी ना हो सका, दिल में कब तू उतर गया
इश्क़ सूफियाना जब हुआ, पलकों पर नज़र आया
“इश्क़ कि नेअमत”
“मेरी लौ”
लौ मेरी भभक रही, धीमे जल रहा हूँ मैं
सीने में सौ दर्द लिये, बस चल रहा हूँ मैं
ना कोई हमसफ़र है, ना कोई रहनुमा
अंधेरो में बस यहाँ, किस छोर है जाना
कोई नहीं यहाँ, बना सके जो राह आसां
लोग कहते है मुझे, इतना सीधा क्यूँ है
मेने कहा, रूह में सच्चाई ऐसे है घुली
जेसे लब से दुआ, रुख से अदा है जुडी
चाहे कितनी भी ठोकरें खायी हो मेने
दिल में वो ‘इरफ़ान’ अब तक है ज़िंदा
जिसे देखकर, मैं जी रहा हूँ तन्हाई में
जो भी मिला है यहाँ, अपना उसे माना
बगैर जाने हुये, सोहबत में रंग जाता
रेशमी वो अदा, कुछ इस तरह से भायी
दिल पर निगाहे, फिर बादलों सी छायी
मगर यह गुमां कहा, वो था सिर्फ ख्वाब
जिसे कभी ना कभी तो बिखरना ही था
उसे भुला ना पाया, खुद को मिटा रहा हूँ
नादान तब था, कीमत अब चुका रहा हूँ
लौ मेरी भभक रही, धीमे जल रहा हूँ मैं
सीने में सौ दर्द लिये, बस चल रहा हूँ मैं
“आईना”
“ऐतबार “
“तेरी परछाई”
“सरहदों के पहरेदार”
“आँखें”
“बददुआ”
“चेहरा”
“प्यारे नबी”
जिनके सदक़े में बनी है ये पूरी क़ायनात
ज़िक्र होता है जिनका सदा ख़ुदा के साथ
अज़ीम पाकीज़ा शख्सियत है प्यारे नबी
मुक़म्मल बंदगी का अकस है प्यारे नबी
सुन्नते जो सिखलाती बेहतरीन अख़लाक़
अमल करे जो उनपे, सँवरते है दोनों जहाँ
सादगी से अपनी जीता है दिलो को उन्होंने
ज़िंदगी से पेश की इंसां के लिए इक मिसाल
बुलंद ये मर्तबा ज़मीन-ओ-आसमाँ भी झुकते
सरकार-ऐ-मदीना का जलवा यूँ आफ़ताबी है
मगफिरत होगी कर ले हुजूर से जो मुहब्बत
दिल में जिसके रवां हो हसरत बस रसूल की
लिखना तो बहुत है लफ्ज़ो में वो क़ुव्वत कहा
सरवर-ऐ-आलम की तारीफ जो कर पाये बयां
जिनके लिए ही कायम है यह पूरी क़ायनात
ज़िक्र होता रहेगा उनका सदा ख़ुदा के साथ
ऐसी अज़ीम पाकीज़ा शख्सियत है प्यारे नबी
इक मुक़म्मल बंदगी का अकस है प्यारे नबी ………इरफ़ान “मिर्ज़ा”
“पतंग”
नीले आसमाँ के आगोश में, बादलों से टकराती हुई
इठलाती बलखाती ये पतंग, बाहें खोले यूँ उड़ रही
कभी यहाँ, कभी वहाँ, हवा के संग चली जाने कहाँ
अल्हड़ जवानी सी मचलती, बुलंदी पर यूँ जा पहुँची
भूल कर उस डोर को, थामा जिसको किसी और ने
इसे नचाता हैं जो, उँगलियों के कुछ इशारो पर
इंसान भूले जा रहा है वेसे, अपने परवर दिगार को
जिसने इसे रचाया बस, मिटटी के चन्द ज़र्रो से
कच्चे ये धागे है, इरादे मगर मजबूत है इनके
पतंग को इतना यकीं, जाना है सितारो से आगे
इन्सान और पतंग कि फितरत कुछ एक सी है
दोनों बंधे इक डोर से, होंसले मगर आज़ाद है
खुले आकाश में देखा, कई तितलियाँ नज़र आई
गौर किया जब मेने, रंग बिरंगी पतंगे उभर आई
साथ उड़ती है इक दूजे के, मिलकर ये सभी पतंगे
बारी आई कटने कि, पराई सी फिर क्यूँ वो लगती
हवाओ कि ज़ुम्बिश में, खुशियाँ सब फैलाती हुई
लहराती झूमती ये पतंग, बंदिशे तोड़े यूँ उड़ रही है
नीले आसमाँ के आगोश में, बादलों से टकराती हुई
इठलाती बलखाती ये पतंग, बाहें खोले यूँ उड़ रही
“तन्हा दिल”
“मेरी क़िताब”
मैं जब भी गौर से, वोह पुरानी क़िताब देखता हूँ
अधूरे कई पन्नो में, लफ्ज़ो के जवाब सोचता हूँ
घर के इक कोने में यूँ, अलमारी में सजी हुई है
धूल से जो सनी हुई, यादों के गट्ठर में दबी हुई है
झाड़ा मेने जब उसे, कुछ हर्फ़ फर्श पर गिर गये
शायद गुमान ना था उन्हें, इतनी मेहरबानी का
ख़ामोश हसरतों का सैलाब, क़ैद था उस क़िताब में
ज्योंही खोला पढ़ने को, संग अपने बहा ले गया
हरदम मेरा साथ निभाकर, तन्हाई को दूर भागती
सच्चे इक दोस्त कि तरह, ग़मों में खुशियाँ ले आती
वक़्त मगर यूँ बदल रहा है, ज़ज्बातो कि शाम हुई
मशीनो कि इस आंधी में, क़िताब बस गुमनाम हुई
कहाँ गये सब लिखने वाले, गौर से वो पढ़ने वाले
आँखों में जो डूबकर, रूह पर लफ्ज़ सजाने वाले
मतलबी दुनिया मगर, क्या समझेगी इसकी तड़प
यह पुकारती है, मुझे ताको में नहीं, दिल में सजाओ
आलीशान महलो कि ज़ीनत, भला इसे कहाँ चाहिये
क़िताब को तो बस यहाँ, इक मेहरबाँ शायर चाहिये
कलम से यूँ अपनी हर लम्हा, ज़िंदा करे जो रुबाई
जुड़कर फिर उनसे बने, क़िताब कि उम्दा गहराई
आँखों में बसाया है मेने, ख्वाब अपनी क़िताब का
लफ्ज़ो में रवां है बस जहाँ, इंतज़ार अधूरे ख्वाब का
मैं जब भी खुद में, शख्स वोह इरफ़ान तलाशता हूँ
अल्फाज़ो में नुमायाँ इक, वुज़ूद के निशान पाता हूँ
मैं जब भी गौर से, वोह पुरानी क़िताब देखता हूँ
अधूरे कई पन्नो में, लफ्ज़ो के जवाब सोचता हूँ
“चाहा है जब से तुम्हे”
होश अजनबी यूँ हुआ, चाहा है जब से तुम्हे
आँखे बस झुकती गई, देखा है जब से इन्हे
लम्हे कुछ रेशमी से, साँसों में ख़ामोश सी
मिट गई है तन्हाई, छाई इक मदहोशी सी
इश्क़ का दरिया है गहरा, डूबते बहते गये
ख्वाबो के जहाँ में, खुदको यूँ भिगोते गये
मख़मली एहसास है, हो रहा इस खुमारी में
महसूस करले जो इसे, जी उठे वो बेज़ारी में
पाना चाहू सदा तुझे, ख्यालो में, उजालो में
दूर होते ही मन मेरा, तलाशे तुझे सवालो में
तेरे पास जब आता हूँ, दिल में उठता है समंदर
हाथो में जो हाथ थामे, लहरो पर बनते है मंज़र
मेरी हर इक शायरी में, अकस तेरा ही समाया
अल्फाज़ो में अब यहाँ, वुज़ूद है मेरा नुमायाँ
सूफियाना इश्क़ यूँ हुआ, सोचा है जब से तुम्हे
क़ैफ़ियत बस बढ़ती गई, पाया है जब से तुम्हे
होश अजनबी यूँ हुआ, चाहा है जब से तुम्हे
आँखे बस झुकती गई, देखा है जब से इन्हे
“मुलाक़ात”
“फ़साद:एक हक़ीक़त”
हर तरफ, हर सूँ यहाँ पर, खौफ़ का है बसेरा
अमन की तलाश में, आहिस्ता हो रहा सवेरा
उजड़े आशियाने यहाँ, गौर से खुदको यूँ देखते
शायद यकीं ना हुआ, अब तक उन्हें फ़साद का
कल तक जो आबाद थी, गुम हुई वो बस्तियाँ
गूंजती रहती जिनमे, मासूम कई किलकारियाँ
कितने घरो को फूंका है, हैवानो की टोली ने
धूं धूं करके यूँ जले है, जेसे जले हो होली में
इक दूजे पर ना रहा, इन्सान को अब भरोसा
नफरत जमी दिलो में, लहू का बना है प्यासा
गहरी साज़िश है यह, उन सियासती फ़नकारो की
चेहरे पे जो लगाये है बेठे, तस्वीर इज्जतदारों की
कारोबार यूँ चलता रहे, आवाम बस पिसती रहे
इसके लिए ही तो रचते है, उंगलियो पर ये फ़साद
मगर इन सबसे बेखबर, कुछ शख्स ऐसे भी है यहाँ
जिन्हे फ़र्क़ नहीं पड़ता है, जात से, धर्म से, नाम से
रहते है सब मिल जुलकर, गुजरे सारे जख्म भुलाकर
यहाँ तो बस एक ही मजहब है, इंसानियत सबके लिए
बन जाये सब इन्सान, कहा बचेगा फिर कोई शैतान
बस इतनी सी गुज़ारिश यहाँ, कर रहा है ये इरफ़ान
हर तरफ, हर सूँ यहाँ पर, खुशहाली का बस हो डेरा
सुकून के लिबास में, चमकता जगे नया इक सवेरा
“फ़ितरत”
कुछ वक़्त है बदला, कुछ मैं भी बदला
फ़ितरत यह मगर, कभी बदलती नहीं
रूह की क़ैफ़ियत, बयां करती जो आदत
ज़िस्म में रवां, ख्वाहिशो सी इक हसरत
इसके बिना ना हो पाये, वुज़ूद की ताबीर
जेसे कोई अधूरी है, ख्वाबो की वो तहरीर
शफ्फाक़ है रूह, मगर ज़िस्म होता मैला
देती है पहचान इक, बनके उसकी फ़ितरत
कई दफा तो इसने मुझे बहुत ही तड़पाया
हर बार सोचा की, अबके तो बदल ही दूंगा
मगर मैं गलत था, ये बसी रही मुझमें यही
रात से है जुडी रहती, जेसे वहाँ कोई सहर
अब मुझे मालूम हुआ, ये अकस है मेरा
इसे है गर मिटाना, खुद भी मिटना होगा
दिन बदल जाते है, हालात बदल जाते है
फ़ितरत यह मगर, कभी बदलती नहीं
कुछ वक़्त है बदला, कुछ मैं भी बदला
फ़ितरत यह मगर, कभी बदलती नहीं
“परछाई”
साँसों में तेरी महक, कुछ इस तरह है समायी
जेसे घुल रही हो रात में, चाँद की वो परछाई
आँखे देखती है ख्वाब, अधजगी कुछ हसरते
छूकर जिन्हे मिलती है, ख्वाहिशों को गहराई
पास आना, दूर जाना, यह तो होता ही आया
ज़माने का ये दस्तूर, इश्क़ में मिलती है जुदाई
हर ग़म को सहकर, हॅसते हुए फिर यूँ बहकर
मिली जब हमको, ज़िन्दगी के सफ़र में तन्हाई
शिकवा ना है, ना अब कोई शिकायत है तुमसे
इल्तिजा है बस, लिखता जाऊ तेरे लिए रुबाई
कभी तो होगा तुम्हे भी यकीं, मेरे उस फितूर का
ना भूल सकोगे कभी, बना था इरफ़ान यूँ शैदाई
साँसों में तेरी महक, कुछ इस तरह है समायी
जेसे घुल रही हो रात में, चाँद की इक परछाई
“निशान”
कह रहा यह पल गुजरे वक़्त की अधूरी दास्तान
रहने लगा था जब मुझमें वो कोई अजनबी इंसान
दोनों ने मिलके बनाया था ख्वाबों का इक जहान
मिलते नहीं मगर क्यूँ अब उन घरोंदो के निशान
कुछ सच्चे से, कुछ अच्छे से, कुछ अपने से लगते
धीरे धीरे सब ढहते गये वो मिटटी के कच्चे मकान
ज़ज्बातो की आंधी ने यहाँ सब कुछ यूँ तबाह किया
खुद को बदलने की ज़िद में खोई है अपनी पहचान
दुनिया के दिखावे में मासूमियत का कोई मोल नहीं
हर पल छला है बस धोखे से यहाँ मुझको इरफ़ान
बदल दिया फिर मेने भी खुदको बेरुखी से ज़र्द होकर
नहीं रहता है अब यहाँ मुझमें वो कोई अजनबी इंसान.
“ख्वाहिशों का जहाँ”
ख्वाहिशों का जहाँ, यूँ मुझमें संवर जाता है
मुड़ के जब देखू, तेरा ख्याल नज़र आता है
तलाशा है जिसे मेने, कई दफा यहाँ से वहाँ
रुक के जब सोचू, इक सवाल उभर आता है
ख्वाबो में तुम, यादो में तुम, वादो में तुम
उठ के जब पाऊ, वोह साया निखर आता है
इतने दूर चले गये, मिलता नहीं कोई निशाँ
ढूंढ के जब हारा, गुजरा वक़्त याद आता है
आज भी जाता हूँ, दरिया के किनारे टहलने
चल के जब रुकू, इक ज़माना लौट आता है
लिख रहा इरफ़ान, वो तस्वीर याद आ गई
दिल से जब पढू, हर जवाब मिल जाता है
ख्वाहिशों का जहाँ, यूँ मुझमें संवर जाता है
मुड़ के जब देखू, तेरा ख्याल नज़र आता है
“सिफ़त”
“मुहब्बत”
“जी ले जरा”
जागती आँखों से कुछ ख्वाब देख ले बस इस तरह
जेसे जिया एहसास यहाँ वेसे ही अब जी ले जरा
ज़िन्दगी के सफ़र में कुछ खोना है, कुछ पाना है
भूल जा ग़मो को, थाम ले उन खुशियो का दामन
जो सोचा वो हुआ नहीं, जो हुआ उसे कभी जाना नहीं
हक़ीक़त में ज़िन्दगी बस हाथो से फिसली जा रही
हर कदम पर यहाँ मिलेंगे तुझे हैरानियों के मंज़र
गले लगाता जा उन्हें, लम्हो को बस जी ले जरा
कोई नहीं जो इसे रोक सके दो पल के लिए भी यहाँ
कुछ वक़्त बस ठहर कर यह आराम कर ले जहाँ
मालूम है फ़ना हो जायेगी इक दिन बुलबुले कि तरह
फिर भी भागता इसके पीछे किसी आशिक़ कि तरह
हर इक दिन यहाँ बनेंगे अनकही हसरतो के शहर
यूँही बहता जा तू उनमें, यादो को बस पी ले जरा
जागती आँखों से कुछ ख्वाब देख ले कुछ इस तरह
जेसे जिया एहसास यहाँ वेसे ही अब तू जी ले जरा
“वुज़ूद”
“जब तक है जान”
तेरी आँखों की मयकदा आरजूए
तेरी होंठो की सुरमई गुफ़्तगूए
नहीं भूलूंगा मैं
जब तक है जान
जब तक है जान
तेरा राहों में साथ छोड़ना
तेरा वादों को यूँही तोड़ना
तेरा पलट के फिर न देखना
नहीं माफ़ करूँगा मैं
जब तक है जान
जब तक है जान
ख्वाबों में बेवजह तेरे आने से
यादों में बेशुमार तेरी रोने से
इरादों में बेइन्तहा तेरे होने से
मुहब्बत करूँगा मैं
जब तक है जान
जब तक है जान ……….